Friday 5 December 2014


लैपटोप पामटोप परिवार (व्यंग्य)

वैसे जिस परिवार में सब मिल कर रहते हैं और सब मिल-बाँट कर आगे बढते हैं, ऐसे परिवार ठाठ से रहते है और आस-पडोस में उनका दबदबा भी बना रहता है। फिल्म "नये दौर" का एक गीत भी है, "साथी हाथ बढा़ना, एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठानाअर्थात जब कंधो पर भार ज्यादा बढ जाय तो बहादुरी दिखाने के चक्कर में कंधे तुडवाने में कोई अकलमंदी नहीं है। ऐसी स्थिति में मौके की नज़ाकत को समझते हुए, जिसका कंधा हाथ लग जाए अपनी बन्दूक टिका देनी चाहिए। 'बिन सहकार नहीं उद्धार' की उपयोगिता सहकारी बैंको तक ही सीमित नहीं है, सहकारी का मतलब साथ मिलकर किसी कार्य को अन्जाम देना। सहकारिता के नतीजों का विश्लेषण चाहे जैसे कर लिया जाए लेकिन चाहे सहकारी चीनी मिल हो या अन्य संस्थाए, किसने  और  कैसे इनका सदुपयोग किया, ये सर्वविदित है। जातिवाद, क्षेत्रवाद जैसे ना जाने कितने आदि अनादिवाद ने आज हर साग-भाजी का स्वाद कसैला कर दिया है, समाज को इकट्ठा होकर इन सब वादो से टक्कर लेने के लिए अपना एक नया वाद बनाकर अपने परिवार को मजबूत बनाना एक बेहतर विचार है। आजकल प्रचार का जमाना है सो समाज का प्रचार भी रोजाना माइक से दिन में पाँच बार जोरदार अवाज में होना चाहिए। राह आसान नही है, इधर एक परिवार और उधर ना जाने कितने वाद और कितने विवाद, गालिब कहते हैं, ये इश्क नहीं आसां, इतना समझ लीजै, एक आग का दरिया है और डूबकर जाना है
जो भी प्यार से मिला, हम उसी के हो लिए, हर तरह के फूल, हार में पिरो लिए, ये एक मधुर गीत की कुछ पंक्तियां है, लेकिन परिवार कोई माला तो है नहीं, परिवार तो फूल और कलियों से महकता हुआ पौधा होता है, जिस पर सारे फूल एक जैसी महक देते है और एक जैसे रंग के होते है। रंग बिरंगे फूलो से हार बन सकता है लेकिन ये सारी कशमकश हार के लिए तो की नहीं जा रही, ये सब किया तो जीत के लिए ही जा रहा है। परिवार में सब एक विचार के हो ऐसा भी बिल्कुल जरुरी नहीं है। हमारे यहाँ तो पति-पत्नी तक के रिश्ते भगवान के यहाँ से तय होकर आते है, विचार का क्या है वो भी बाद मे मिला ही लिए जाते है। रंग बिरंगे फूलो की माला वाला ये परिवार आने वाले समय में क्या गुल खिलाएगा, इसका इतिहास से अंदाजा लगाए तो हश्र का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है लेकिन फिर भी एक प्रयोग करने में बुराई भी क्या है, सब कुछ इतिहास से ही तय होगा तो फिर नयी खोज कैसे होगी। भ्रष्टाचार विरोध का समविचार लेकर रामलीला मैदान चाहे कितना जयकारा किया हो, घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही, उनकी जयकार ललकार में बदल गयी।
ये जनता है ये सब जानती है, जनता को बनते-बिगडते परिवारो का काफी अनुभव है। जनता ने मंडल भी देखा है कमंडल भी देखा है, जनता अब इतिहास, कैमिस्ट्री और गणित की सारी समीकरणो का ज्ञान साक्षरता मिशन के तहत पा चुकी है। आज जब जनता खम्बे पर चढकर भाषण सुनती है तो उसके हाथ मे इंटरनेट लगाविंग वाला लैपटोप और पामटोप भी होता है, इसलिए जो अब तक होता आया है अब वो सब आसान नहीं है। ये लैपटाप और पामटोप किसी का सगा नहीं होता, ये तो वही बोलेगा जैसा कि गूगल बाबा का आदेश होगा। आजकल के परिवार वालो को चाहे घर में साथ-साथ बैठे महीनों हो जाए लेकिन वो चौबिसो घंटे लैपटोप या पामटोप पर आनलाइन साथ-साथ रहते हैं, अब वो पुराने वाले परिवारो का जमाना शायद नहीं रहा, अब सब लैपटोप पामटोप परिवार हैं।

Monday 27 October 2014


विजयी सत्य है?

ये सत्य भी ना बस, कोने में कहीं छुपा, सुकडा सा बैठा मिलता है, कोई अपने पास पलभर बैठाने के लिए तैयार नहीं है। इसके बावजुद सत्य ये दावा ठोकने से नहीं चूकता कि साँच को आँच नहीं। सत्य के लिए ऐसी आँच कहाँ से लाऊ जो उसकी सिकुड़न दूर कर दे, ये कोई सर्दी की सिकुड़न तो है नहीं कि आंच से दूर हो जायेगी। सत्य और झूठ मे कबड्डी के खिलाडियों की तरह का खेल चलता रहता है, बस डैन झूठ को ही देनी होती है। जो है वो तो है ही, उसकी सत्यता से कौन इन्कार कर सकता है, लेकिन बडी बात तो तब है जो नहीं है फिर भी है, भले ही आज वह एक जुझारु संघर्षशील झूठ है, जो एक स्थापित सत्य को चुनौती दे रहा है। जिसने कुछ ऐसा सोचा जो अभी तक स्थापित सत्य नहीं है अर्थात अभी तक झूठ है, उसी ने दुनिया में नई खोज की है और दुनिया को नयी दिशा दी है। जब-जब कोई झूठ जीतता है, जीतते ही सत्य उसे अपने पाले में खींच लेता है। झूठ तब तक झूठ है जब तक वह जीत नहीं जाता। विजयी सत्य है। आज यहाँ तो कल वहाँ, जहाँ विजय वहाँ उत्सव, यही रीत है। क्या ये विजय उत्सव वर्तमान सत्य की भूतपूर्व सत्य पर विजय का उत्सव है, क्योंकि सत्य तो पहले से ही विजयी है तो फिर उत्सव क्यो?  
बच्चो को भी अपनी परीक्षा में ट्रयु फाल्स के प्रश्नो से रूबरू होना पडता है। प्रथम सत्र में तो यही ट्रयु था कि डा॰ श्री मनमोहन सिंह हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं”, फाइनल परीक्षा आते-आते फाल्स हो गया। आज "श्री नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं“, यही ट्रयु है। कोई विद्धार्थी यदि इसे ऐसे समझे कि कोई सत्य अन्तिम सत्य नहीं होता। आज जो फाल्स है, वही आने वाले समय का सत्य हो सकता है इसलिए फाल्स को एक सिरे से नकारा नहीं जा सकता। वही आज जो सत्य है, वह कल फाल्स हो सकता है, इसलिए तत्कालिक सत्य को अन्तिम सत्य मानना भी सही नहीं है। क्या पुरातन सत्य को सिहांसन से हटाकर नूतन सत्य खुद के लिए जगह बनाता है? नूतन सत्य स्थापना के बाद पुरातन सत्य क्या सत्य नहीं रह जाता? क्या हर सत्य का भूत झूठ है? झूठ और सत्य का क्या पता, जब तक परखा ना जाय। विभीषण ने तत्कालिक सत्यता अर्थात रावण को परखा और अपनी जीवन्तता साबित की। सत्यता की निरन्तर खोज ही जीवन्तता का प्रमाण है। सत्य का रास्ता दुनिया नहीं सह सकती। बापू जी का जीवन देखिये, उन्हे जब कोई दूसरा मारने के लिए तैयार नहीं होता था तो वे अपनी आत्महुति देने पर तुल जाते थे। सत्यता को भी बारम्बार परीक्षा से गुजरना पड़ता है, खुद को सिद्ध करना पड़ता है।
ऐसा कहा जाता है कि सच्चाई कड़वी होती है इसलिए थूक दी जाती है। किसी से सुना था कि हनुमान जी ने एक भक्त से प्रसन्न होकर वर मांगने के लिए कहा। भक्त ने हनुमान जी से हनुमान जी जैसी शक्ति मांगी। हनुमान जी के समझाने के बावजूद हनुमान जी को भक्त की जिद के सामने विवश होकर शक्ति देनी पडी और परिणामस्वरूप भक्त का शरीर फट गया क्योंकि भक्त का शरीर उस शक्ति को समायोजित नहीं कर पाया। शायद सत्य की शक्ति भी ऐसी ही होती है जिसे समायोजित करने के लिए पहले खुद को तैयार कर लेना जरूरी है। तब तक यही सही माना जा सकता है कि सच्चाई कडवी होती है इसलिए इसे थूक दिया जाता है।

Saturday 13 September 2014


नमस्कार, मैं आपका …….

१३ सितम्बर को द सी एक्सप्रेस में प्रकाशित हो चुका है........
नमस्कार की महिमा अपरम्पार है। वो जिन्दगी भी कोई जिन्दगी है जिसमें कोई नमस्कार से दो चार ना हुआ हो। नमस्कार ना कोई व्यवहार है ना ही कोई सत्कार प्रतीक है, नमस्कार तो सीधा-सीधा व्यापार है या कहें व्यापार का एक हथियार है, इस हाथ नमस्कार को किया स्वीकार, उस हाथ चढ गया मिस्टर नमस्कार का मिस्टर स्वीकार पर उधार। नमस्कार व्यापार क्षेत्र का सबसे बड़ा बाजार है, नमस्कार अपनाओ फिर क्या दिन क्या रात हर पल व्यापार में चमत्कार ही चमत्कार है। एक बार नमस्कार स्वीकार हो जाय, फिर मि॰ स्वीकार के पास जो भी है उस पर मि॰ नमस्कार का पूरा-पूरा अधिकार है। यदि किसी मौके पर मि॰ स्वीकार मि॰ नमस्कार के वायदा कारोबार में खरे नहीं उतरते तो फिर तो सोने पे सुहागा, इसके बाद मि॰ स्वीकार जन्म जन्मान्तर के कर्जदार हो गये। इसके बाद मि॰ नमस्कार के सारे सपनें ब्याज से ही पूरे हो जाने हैं, मूल नमस्कार का उधार अपनी जगह ज्यों का त्यों बरकरार रहेगा। नमस्कार पूर्णतः मुनाफे का बाजार है, नुकसान का  इसमें कही से कही तक नहीं आसार है।

सुबह सुबह घंटी बजी, मिस्टर स्वीकार ने आँख मलते हुए दरवाजा खोला तो देखा कि बत्तीस इंच की मुस्कुराती नमस्कार लिए आ धमके थे मिस्टर नमस्कार। क्यों पहचाना मिस्टर स्वीकार, लोजी मैने भी कैसा सवाल पूछ लिया, कैसे नहीं पहचानेंगे भला अभी  कल ही हुई थी हमारी आपकी नमस्कार। पहले आपकी जान पहचान करा देता हूँ, ये हैं मि॰ स्वीकार और ये हैं हमारे रिश्तेदार, इनकी एक समस्या थी कह रहे थे कि यदि मि॰ स्वीकार चाहें तो हो सकते है समस्यानिराकरण में मददगार। हमने कहा कि इसमें क्या संकोच करना, मि॰ स्वीकार के तो है बहुत उच्च विचार, वो तो हर है हर किसी के मददगार, हमने कहा चलो हो जाओ तैयार, अभी चलते हैं मि॰ स्वीकार के द्वार। मि॰ स्वीकार के पास मदद के अलावा अब कोई रास्ता नहीं था सो मदद हो गई। मि॰ नमस्कार जाते जाते धन्यवाद देना भी नहीं भूले। देखिए मि॰ स्वीकाए यूँ तो कभी मि॰  कुविचार भी हमारे किसी काम को मना नहीं करते लेकिन फिर भी हमने सोचा कि आपसे इस बहाने मुलाकात हो जायेगी। हम अपने काम के लिए तो किसी के पास जाते नही है बस समाज सेवा धर्म ही निभाते है।

कौन कहता है नमस्कार करने वाला लाचार है, नमस्कार करने वाला ही सबसे मालदार है। लाचार तो बेचारा वो है जिसने किया नमस्कार को स्वीकार है। जिसने सबसे ज्यादा किया नमस्कार को स्वीकार है, आज बाजार में वही सबसे ज्यादा  लदा  हुआ कर्जदार है।

ऊह पडोसी, आहा पडोसी
किसी की उन्नति में पडोसी का बड़ा अहम स्थान होता है। पडोसी का ड़सा पानी नहीं मांगता, ऐसा बिल्कुल नहीं है, पडोसी कोई सांप तो है नहीं कि डस लेगा।  पडोसी तो खट्टा मीठा ढोकला है, कभी खट्टा कभी मीठा। स्वाद स्वाद में कोई गपगप ना कर जाए, इसलिए साथ में मिर्ची भी होती है।  जैसे ही कोई स्वाद स्वाद में गपगप करने की कोशिश करता है, मिर्ची भी ढोकले के साथ लपककर उसके गल्लो पर अपना ढोल पीटना शुरु कर देती है। फिर गपगप पडोसी सी सी के म्युजिक के साथ ऊह ऊह मिर्ची आह आह मिर्ची चिल्लाता है। अब कोई चिल्लाए तो चिल्लाता रहे, ढ़ोकले को तो अपने बड़ो की सीख अच्छी तरह याद है, इसलिए ढोकले को तो अपना ढोकला धर्म निभाना है।
धर्म निभाते निभाते आपने ये क्या कर डाला जी, हम तो बस इतना कहा था कि जा पान ले आ, तुमने तो अपने बनारसी पान को ही खतरे में डाल दिया। पान की पीक से लथपथ लाल लाल कोणें ही तो हमारी पहचान है, अपने बनारस को क्योटो बनाने के चक्कर में हमे अपनी पहचान तो मिटानी नहीं है। हमारे गीत तो बेमानी हो जाएंगे, "पान खाए सैंया हमार...", "खैइ के पान बनारस वाला...", ऐसे तो सब गडबड हो जाएगा, सैंया पान नहीं खायेंगे तो क्या खाक सैंया और बिन बनारसी पान कैसे मचेगा धमाल। बिन पान के छोरा बनारस वाला कैसे दिखेगा, वो तो लव इन टोक्यो बन जाएगा। हमने तो कल कोई यहाँ तक कहते सुना है कि टोक्यो वाले भ्रष्टाचार भी नहीं करते हैं। बिन भ्रष्टाचार के तो जीवन में कोई रस ही नहीं रह जाएगा, ट्रेफिक के नियम तोडना, यहाँ वहाँ कूडा फैलाना, आफिस लेट पहुँचना, राष्ट्रीय धरोहर को अपनी धरोहर समझकर उसका भरपूर दुरुपयोग करना आदि के बिन तो हमारा खाया पिया पचना भी नामुमकिन है। भ्रष्टाचार के अमूल्य गुणो के बारे में तो हम ही जानते हैं, रोजमर्रा में जो पेंच पेंचकश से नहीं खुलतें हैं वो सब पेशकश से ही तो खुलतें हैं।
कई सभाओं और चर्चाओं में  डायबिटीज के बारे में ज़िक्र सुना था। यूँ तो चीनी का प्रयोग कम से कम करना स्वास्थ के लिए हितकारी होता है लेकिन डायबिटीज की बिमारी से ग्रस्त रोगी को चीनी से थोड़ी ज्यादा दूरी बनाना ज़रुरी हो जाता है। एक बार किसी को डायबिटीज की बिमारी लग जाय तो फिर छोटी-छोटी बिमारियां भी उसकी तरफ मुँह फाड़े चली आती हैं। सामान चीनी और चीनी पाकिस्तानी, दोनो हमारे यहाँ सुपरहिट हैं, भले ही ये हमारे अपने लघु उघोगो को डायबिटीज का शिकार क्यों ना बना रहीं हों। दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है, चीनी की लालसा में हम एक लाल पहले ही गवां चुके हैं। भले ही आज चीनी हमारे अन्दर प्रवेश कर चुकी हो लेकिन धीरे-धीरे इसके प्रयोग में कमी लायी जाय तो एक दिन इस चीनीजनित डायबिटीज की बिमारी से छुटकारा पाना इतना मुश्किल भी नहीं है। यदि इस चीनी की लालसा से हमने छुटकारा नही पाया तो निश्चित ही एक  दिन हम डायबिटीज के शिकार हो जायेंगे फिर करेले की कडवाहट को भी स्वीकार करना पडेगा।
सामान चीनी हो या चीनी पाकिस्तानी  इनकी नियत को देखते हुए, इनसे नियत दूरी बनाए रखना ही बेहतर होगा। अपने बनारसी पान का कोई जवाब नहीं, जा पान ले आ, पान भी खाएंगे और पान के साथ बुलेट ट्रेन भी चलाएंगे। कोई मिर्चीग्रस्त होता है तो हो जाए, शान्तिपाठ करते करते हम भी त्रस्त ही हो गयें है। हमने तो पहले दिन ही खुद आमंत्रित कर खट्टा मीठा ढोकला खिलाया था, गपगप पडोसी ने समझा कि गपक लेगा, अभी तक ढ़ोकले का मज़ा लिया है ले अब मिर्ची खा।

Sunday 6 July 2014

बोल मीठा बोल
एक कहावत है कि मीठा बोलने वाले की मिर्च भी बिक जाती है कुछ लोगो की बाते इतनी मिठास होती है कि बातो के बाद रसगुल्ला भी खाओ तो फीका ही लगता है। चाय के शौकीन  गंगु पर एक मीठी बातों वाले साहेब की कुछ मीठी बातें कहर बन कर बरसी। मीठी बातो के कहर से गंगु की चाय से मिठास ऐसे गायब हुई जैसे उत्तर प्रदेश से बिजली। चाय के शौकीन गंगु ने  चाय  में एक से दो और फिर दो से चार चम्मच चीनी डालना शुरु कर दिया लेकिन चाय है कि मीठी होने का नाम ही नही ले रही। जब चाय मीठी नही हुई तो गंगु ने अपने कुछ इष्ट मित्र मंडली  में इस मुद्दे को उठाया, उनसे प्राप्त सुझावो को एक एक कर अपनाया।

एक मित्र ने कहा कि नमकीन खाओ इसलिए कुछ नमकीन खायी लेकिन नमकीन तो जैसे मानसून से पहले ही सील गयी हो, करारापन तो दूर, गला भी कडवाहट से भर दिया। एक सज्जन ने बाताया कि हरी मिर्च खाओ, चाय मीठी करने का ऐसा जुनून चढा था कि आंखे लाल होती गयी, आंसुओं की अविरल धाराएं बह निकली लेकिन आव देखा ना ताव एक एक करके पूरी आधा किलो हरि मिर्च खा गये, लेकिन चाय फिर भी मीठी नही हुयी। किसी ने बताया कि नीम के पत्तो का काढा बनाकर पियो, किसी ने बताया कि अमरूद के पत्तो का काढा बनाकर पियो , सब पिया लेकिन चाय मीठी नही हुयी। समस्या गंगु के रिश्तेदारो तक फैल गयी, हालचाल पूछने के लिए रिश्तेदारो का तांता लग गया। गंगु का दूर का रिश्तेदार जो पडौस  में ही रहता था, चाय की मिठास लौटाने का शर्तिया इलाज बताते हुए उसने एक बोरी करेले गंगु के आंगन  में पटक दिये, बोला! पुराना नुख्सा है एक हफ्ते करेले के रस का सेवन करो और मिठास वापिस पाओ। मरता क्या ना करता, गंगु ने करेले को भी आजमाया, नाक सकोड हफ्तो करेले का रस पीते पीते गंगु के नाक पर जैसे करेला छप गया, लेकिन नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात। गंगु की समस्या अब एक बिमारी का रूप लेती जा रही थी। गंगु का पूरा परिवार गंगु की बिमारी को लेकर गमगीन था। गंगु के परिवार वाले उसे एक पुराने रोगो को जड़ से खत्म करने वाले वैद्ध के पास ले गये। गंगु को विभिन्न प्रकार की औषधि और काढे़ पिलाये गये, विभिन्न प्रकार की भस्में खिलायी गयी। इधर गंगु की बिमारी लाइलाज हो चली थी, उधर पैसे कि तंगी से गंगु का परिवार पंगु हो चला था। किसी ने भूत-प्रेत का साया बताया तो उसका भी उपाय कराय़ा लेकिन गंगु की चाय  में मिठास नही लौटी

गंगु अपनी बिमारी से इतना परेशान हुआ कि सोचते-सोचते गंगु मुर्छित हो गया, मुर्छावस्था  में गंगु को एक आवाज कांनों  में पड़ी कि जिसके पास से ये बिमारी लगी है इसका इलाज भी वही मिलेगा। मुर्छा टूट़ते ही गंगु  मीठी बातो वाले साहेब के पास पहुंच गया। मीठी बातो वाले साहेब ने गंगु की बाते ध्यान से सुनी  और  कहा कि गंगु तुमको खुश होना चाहिए। जितने भी बड़े आदमी होते है वे फीकी चाय पीते है, अब तुम्हारी चाय फीकी हो गयी है, इसका मतलब ये है कि अब तुम बडे़ आदमी बनने वाले हो। गंगु वापसी लौटते हुए यही सोच रहा था कि वह कितना बेवकूफ है, देखते ही देखते वह इतना बडा़ आदमी बन गया और वह खुद को बीमार समझ रहा है। कितने अच्छे है मीठी बातो वाले साहेब ने   बातो ही बातो  में समस्या जड़ से खत्म कर दी

Thursday 26 June 2014


अंधकार और कवि
"जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि" बात बिल्कुल सोलह आन्ने सच है। जहाँ रवि नही पहुँचते वहाँ कौन पहुँचता है? वहाँ पहुँचता है अंधकार। अंधकार और कवि का चौली दामन का साथ है, इसलिए सारे कवि सम्मेलन रवि की अनुपस्तिथि में रात में होते हैं, जहाँ रवि हो वहाँ कवि पहुँचते ही नही हैं।  बाते भी सारी रात की ही करते हैं जैसे दिन से कोई दुश्मनी हो, सूरज में सारी दुनिया देखती है, कवियो को सब कुछ चाँद में ही नजर आता है। दुनिया को चँदा गोल नजर आता है कवियो को चकोर नजर आता है। रात के दो दो बजे तक कवि सम्मेलन करते हैं और कहते हैं कि इस रात की तनहाई में आवाज ना दो और श्रोताओ की आवाज बन्द हो जाय  तो फिर कहेंगे कि ताली बजाओ, अपनी उपस्तिथि दर्ज कराओ। कवि भी नाना प्रकार के होते है, हास्य रस कवि, वीर रस कवि, श्रगार रस कवि, आदि आदि।
हास्य रस के कवियो की हालत ऐसी होती है जैसे घर से इतने डरा के भेजे गये हो कि दुनिया हंस ले लेकिन कवि के चेहरे पर हंसी नही आनी चाहिए। कुल मिला के हंसी आनी चाहिए वो खुद को आए या दूसरो को, दूसरे की पर ही छाती ठोक लो क्या फर्क पड़ता है। हास्य के कवि का अन्दर का दर्द कोई नही समझता। कवि कितना भी चिल्लाले कि हमारे यहाँ शादी से पहले प्रेम का कोई चांस ही नही है, कोई ध्यान नही देता कि शादी से पहले प्रेम ना होने का कितना बडा दर्द है? वीर रस के कवियों की बडी अजीब स्तिथि है, उम्र कितनी भी हो जाय लेकिन आवाज इतनी कडक होती है कि देश के दो चार दुश्मन तो आवाज सुन कर ही भाग जाय। संसद से सवाल जबाब ऐसे होता है जैसे आधी संसद कवि सम्मेंलन सुनने के लिए श्रोताओ में ही बैठी हो। वीर रस के कवियो की कवि सम्मेलन में बडी महत्ता है, यदि श्रोताओ की ध्यानमग्नता की कमी से कवियों का ध्यानभंग हो रहा होता है, ऐसी विपरीत परिस्तिथियों में किसी वीर रस के कवि को बुला लिया जाता है, कुछ श्रोतागण घबराकर शान्त हो जाते हैं, बचे हुए उन्हे देखकर चुप्पी साधनें में अपनी भलाई समझते हैं। श्रंगार रस के कवि युवाओ के बहुत प्रिय होते हैं, यूनिवर्सिटीज आदि के कवि सम्मेंलन में इनकी बेहद मांग होती है। छात्रो को अपने कोर्स चाहे विषय सूची याद हो ना हो, लेकिन इन कवियो की कविता जबानी याद होती है
हर कोई अपनी अच्छी छवि बनाना चाहता है लेकिन इस मामले मे कवि पीछे रह जाते है, कवि की कोई छवि नही होती। ये किसी एक दो कवि की बात नही है, बल्कि किसी भी कवि की छवि नही होती। कवि की छवि हो भी नही सकती क्योकि छवि रवि के बिना नही बन सकती और कवि वहाँ पहुँचते है जहाँ रवि नही पहुँचते कवि को किसी छवि की जरुरत भी नही होती क्योकि इस सम्मेलन की जो खबर छपती है, उसमे छाया से पहले कवि के शब्दो पर नज़र जाती है।

Thursday 19 June 2014


लातो का वल्डकप नही बातो का बल्डकप होना चाहिए
द सी एक्सप्रेस मे प्रकाशित हो चुका है..
फीफा की फुटबाल मे जीवन्तता की कमी है, फीफा मे फुटबालर लातो से फुटबाल खेलता है लेकिन हमारे देश मे बतबोलर बातो से फुटबाल खेलता है। बातो के बतबोलर की फुटबाल मे कही अधिक जीवन्तता है, इसमे अच्छे अच्छो का लतिया के नही बतिया के डब्बा गोल कर दिया जाता हैलातो वाली फुटबाल तो बस शौकिया होती है, बतबोलर की बातो वाली फुटबाल ही असली फुटबाल है। बात से काम चल जाय तो फिर लात क्यो चलाना? बतबोलर को बात छोकने मे इतनी निपुणता हासिल है कि लात चलाने की जरुरत ही नही पडती, बातो से ही किसी को भी फुटबाल बना देते है। जिनको बातो से खेलना नही आता, वही लातो से फुटबाल खेलते है।

टिकट के लिए दावेदारो की  दौड मे दावेदार को इस से उस के पास दौडाया जाता है, फलाना गुट मे पैठ बनाये तो ढिमका गुट हाथ ने निकल जाता दिखायी जाता है, दावेदार इससे उससे फलाना से ढिमका से मिलते मिलते तिनका-तिनका हो जाता है।  दावेदार को बात बनती तो दिखती है लेकिन बनती नही, बनती है तो बस फुटबाल। कितना भी मन खिन्न हो लेकिन गोलपोस्ट तक पहुँचना है तो बात के बिना बात भी नही बनेगी। दावेदार बतबोल की बात खा खाकर जैसे-तैसे डी मे तो प्रवेश कर जाता है लेकिन यहाँ बतबोलो की धारदार बातो के सामने हिम्मत जबाब दे देती है और किस्मत से यही उम्मीद रहती है कि कही से कोई बात आये जो उसे गोलपोस्ट के अन्दर कर दे। अपनी और पार्टी की जीत हो जाय तो टिकट की दौड के बाद गोल्डन सूट की होड मे एक बार फिर फूं फां फुटबाल के लिए कमर कसनी पडती है।

एक बार फाइल बाबु तक पहुँच जाय, बस फिर फाइल जमा करने वाला फाइलर रात को सपने मे भी बाबुजी बाबुजी ही भजता है। जैसे ही फाइलर दफ्तर जाता है, फाइलर की नमस्कार का जबाब बाबु एक कुटिल स्माइल के साथ देता है और जबाब मे फाइलर फिनाइल का घूँट सा पीकर रह जाता है। फाइलर को बाबु का दफ्तर और अपना घर फुटबाल मैदान के दो गोल पोस्ट से नजर आते है । ऐसा नही है कि फाइल दौडती नही है लेकिन लाल बाबु इधर से और हरि बाबु उधर से बातो की लतेड देते है। फाइल और फाइलर की स्थिति लाल हरि बाबु के बीच और घर दफ्तर के बीच फुटबाल सी हो जाती है

बात और लात मे जिसमे जो माहिर वह वही फुटबाल खेलता है, बस मे फीफा वाली फुटबाल मे अंग्रेजी का गोल होता है और फूं फां बातो वाली बतबोलर की फुटबाल मे जिसकी फुटबाल बनती है वह खुद हिन्दी मे गोल हो जाता है। बतबोलर की फूं फां फुटबाल का भी एक बल्ड कप होना चाहिए, वही होगा हमारा अपना बल्ड कप, हम तो उसी मे खेलेंगे, ये फीफा का वल्ड कप हमारे काम का नही है। ।

Sunday 15 June 2014


जम्मु-काश्मीर विकास के लिए बाधा पार करनी होगी
अमर उजाला- काम्पैक्ट, आगरा मे प्रकाशित हो चुका है..
आज भी 1947 के बटवारे के समय जम्मु-काश्मीर आये हिन्दुओ को भारत की नागरिकता तो है लेकिन वे जम्मु-काश्मीर की नागरिकता से आज भी दूर है। लद्धाख से भाजपा के सांसद जितेन्द्र सिंह ने धारा-370 की व्यापक परिप्रेक्ष्य मे मुल्यांकन करने की जरुरत बतायी है जिसपर एक गम्भीर चिंतन की आवश्यकता है। जम्मु-काश्मीर के ये भारतीय नागरिक आज भी राशन कार्ड, नगरीय और विधान सभा  के चुनाव मे मताधिकार तक से आज भी वंचित है। भारतीय नागरिकता हिने के नाते संसदीय चुनावो मे जरूर ये अपने मताधिकार का प्रयोग करते है। इन लगभग ढाई लाख मतदाताओ मे अधिकतर दलित, बोद्ध और स्थानीय जनजातियो से है। धारा ३७० के संबंध मे उमर अबदुल्ला का हालिया वक्तव्य कि यदि धारा 370 से छेडछाड की जाती है तो जम्मू-काश्मीर भारत का हिस्सा नही रहेगा, बेहद गैर जिम्मेदाराना है और इसकी भर्त्सना की जानी चाहिए, ऐसे वक्तव्य देश की अखण्डता और सम्प्रभुता पर सीधा हमला है।

7 अक्टूबर 1947 मे महाराजा हरिसिंह के भारत अधिराज्य का विकल्प स्वीकार करने के बावजूद शेख अबदुल्ला ने भारतीय संविधान से जम्मु-काश्मीर को अलग रखने की कवायद जारी रक्खी। इसी समय मे मोहम्मद अली जिन्ना ने भोपाल और हैदराबाद के मिस्लिम शासको को भी पाकिस्तान अधिराज्य के विकल्प को स्वीकार करने का दबाव बनाया था। भारत स्वतंत्रता अधिनियम-1947 और भारत सरकार अधिनियम-1935 से स्पष्ठ था कि ब्रटिश इंडिया के अधिकार क्षेत्र से बाहर की भारतीय रियासतो को भारत या पाकिस्तान अधिराज्य मे शामिल होने का विकल्प दिया गया था। तत्कालीन भारत सरकार के रियासत मंत्रालय के प्रभारी मंत्री ने अधिमिलन पत्र तैयार किया, जिसमे लगभग सभी रियासतो के राजाओ ने संघ के इस प्रस्तावित अधिमिलन पत्र पर हश्ताक्षर करके भारत अधिराज्य मे शामिल होने का निर्णय 15 अगस्त 1947 से पहले ही कर लिया था, जम्मु-काश्मीर हैदराबाद और जूनागढ मे हैदराबाद और जूनागढ़ ने भी सरदार पटेल के प्रयासो से भारत अधिराज्य मे विलय का विकल्प स्वीकार कर लिया। उसी समय  कबीलाइयो के वेष मे पाकिस्तानी सेना ने जम्मु-काश्मीर पर हमला कर दिया। भारतीय सेना पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मु-काश्मीर मे आगे बढ रही थी लेकिन अचानक जनवरी को नेहरु ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी और मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ मे ले गये, आज तक जम्मु काश्मीर का वो हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे मे है। जम्मु-काश्मीर के भारत मे विलय के बाद नेहरु ने राज्य की कमान शेख अबदुल्ला को सौप दी, मौके का फायदा उठा शेख अबदुल्ला खुद को "सदरे रियासत" घोषित कर अपने हित साधने की तरफ आगे बढने लगे। इसी पृष्ठभूमि मे गोपालस्वामी आयंगर ने संघीय संविधान सभा मे धारा 306-ए का प्रारुप प्रस्तुत किया, जो बाद मे धारा-370 बनी, हालांकि गोपालस्वामी आयंगर  ने भी इसे तत्कालीन परिस्तिथि को देखते हुए एक अस्थायी व्यवस्था ही बताया था।

23 जून 1953 को सारा देश तब आश्चर्यचकित रह गया जब पता चला कि डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का अस्पताल मे ले जाते हुए निधन हो गया है, उन्होने नारा दिया था "दो विधान, दो प्रधान, दो निशान, नही चलेंगे नही चलेंगे"। पूरे देश मे विरोध प्रदर्शन करते हुए, जब डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मु-काश्मीर पहुँचे, तो उन्हे उनके साथियो सहित गिरफ्तार कर लिया गया । डा. मुखर्जी की रहस्मय शहादत के बाद पूरे जम्मु-काश्मीर मे हिंसक आंदोलन शुरु हो गये, जिसके बाद शेख अबदुल्ला की गिरफ्तारी भी हुई लेकिन बाद मे नेहरु और शेख अबदुल्ला के बीच समझौता हुआ और जम्मु-काश्मीर मे धारा-३७० लागु कर दी गयी। आज जम्मु-काश्मीर को देश की मुख्यधारा मे लाकर विकास की राह पर आगे लाने के लिए धारा-370 पर चर्चा जरुरी हो गयी है और यही  डाक्टर मुखर्जी  को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। डाक्टर मुखर्जी शहादत को भुलाया नही जा सकता।

Tuesday 10 June 2014


बोल गोलमोल, फिर सारे द्वार खोल
मम्मी की रोटी गोल है, पापा के पैसे गोल है, चंदा मामा गोल है, ये सब बचपन के राक एण्ड राल है। जैसे जैसे बचपन से जवानी आती है और जवानी मे रवानी छाती है, मम्मी की गोल रोटी मोटी हो जाती है, पिज्जा बरगर स्विस रोल का टेस्ट आफ सोल हो जाता है। पापा का पैसा ही नही, पापा का बडा बडा नोट भी जेब से गोल हो जाता है, चंदा मामा भी गोल नही रहता, ये भी महबूबा के शक्ल अख्तियार कर चकोर हो जाता है। इसका पता नही ये गोल-गोल कब किधर चल दे, इसकी स्थिति बडी डावाडोल है। इस गोल का कोई मोल नही, ये अनमोल है। भोलु के अनमोल होने मे इस गोल के मोल का झोल है, उसने गोलमोल के सुत्र को समझा है, गोलमोल उसके अनमोल होने का सुत्रधार है। सीधे रस्ते की उल्टी चाल हो या उल्टे रस्ते की सीधी चाल, कोई फर्क नही पडता क्योकि दुनिया गोल है और घूमना तो फिर भी गोल गोल है। गोल-गोल घुमने वाला अलग होता है, चालबाज तो चाल चलता है और जिस पर चलता है, वो गोल गोल चक्कर लगाते लगाते घमचक्कर बन जाता है।
इस गोल गोल ने बडो बडो का घमचक्कर बना दिया, भारत मे दौसो साल से जमे अंग्रेजो को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के गोल गोल घूमते चरखे ने ऐसा घुमाया कि उनकी चकरघिन्नी बन गयी और भाग खडे हुए। स्वाधीनता संग्राम मे अंग्रेजो के खिलाफ गोलबन्दी करने मे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के गोल-गोल घूमते चरखे का बडा रोल रहा था, चरखे ने स्वाधीनता की क्रान्ति मे धुरी का काम किया था। भगवान श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र भी गोलाकार ही था, भले ही सौ अपराधो के बाद सुदर्शन का प्रयोग हुआ हो लेकिन जब हुआ तो अपने मे एक अलग इतिहास बन गया। आज इंटरनैट मे अपलोडिंग हो या डाउनलोडिंग गोल-गोल घुमते चक्कर से हर कोई वाकिफ है। इंटरनैट के गोल गोल घूमते चक्कर ने आज पूरी दुनिया को गोलबन्द कर दिया है। चाहे वह राजनीति हो, खेल हो, रिसर्च हो या बच्चो के गेम्स हो, आज इंटरनैट के गोलचक्कर से कोई भी क्षेत्र अछुता नही है, इंटरनैट के गोलचक्कर ने हर किसी की पुतली गोल कर दी है। इंटरनैट के गोलचक्कर ने बडे बडे गोलमोल चालबाजो का डब्बा गोल कर दिया। हाल के समपन्न चुनावो मे भी बहुतो को रोल करने मे इंटरनैट के गोलचक्कर का अपना गजब का रोल रहा है।
गोलमोल की गोली थ्री नाट थ्री की गोली से भी ज्यादा काम करती है, जिस पर गोलमोल की गोली दागी जाती है, ये उसे मारती नही है बस मरनासन्न कर के छोड देती है। जब तक भोलु गोलमोल मे पारंगत नही होते तब तक टालमटोल का सुत्र अपनाया जाता है, इससे कम से कम छुटभैया गोलमोल कि पदवी तो मिल ही जाती है। परमसिद्धि प्राप्त गोलमोल भोलु को अन्त मे गोल-गोल  इमारत मे अपनी प्रतिभा को चरम पर मे जाने का मौका मिलता है ये गोलमोल की क्रिया अप्राकृअतिक नही है, हम जिस धरती पर रहते है वह भी गोल है, ये धरती अपने ही अक्ष पर भी घूमती रहती है, यही नही ये धरती सूर्य के चारो तरफ भी घूमती है, इसे तो प्राकृतिक घूमना ही कहेंगे? केवल धरती ही नही, सभी गृह गोल-गोल होते है और गोल-गोल घूमते है और उनके साथ हम भी गोल-गोल घूमते रहते है। जिसने इस दुनिया के गोलमोल के बोल को समझा उसके लिए दुनिया के सारे द्वार खुल जाते है। इस गोलमोल के चक्कर मे घूमना हमारी मजबूरी है, एक चमकता सूर्य हमारी धुरी है, इस चमकते सूर्य से हम कभी नजरे मिलाकर ये भी नही पूछ सकते कि उसने हमारी चकरघिन्नी क्य़ू बना रक्खी है ?

Saturday 31 May 2014


अपनी पुरातन गरिमामयी जमीन तलाशता अफगानिस्तान

आज जिस तालिबान से अमेरिका परेशान है, उसी तालिबान ने ही रुसी फौजो को अफगानिस्तान से वापसी करायी थी। चुनावो मे अफगानियो का बढचढ कर मतदान साफ दिखाता है कि अफगानिस्तान  अब लोकतंत्र कायम कर फिर प्रगति के रास्ते पर दौडना चाहता है तालिबानियो का लोगो की मतदान वाली उंगलियो का काट देना, अभी भी अफ्गानिस्तान मे तालिबान की सक्रियता की तरफ इशारा करता है तो वही मतदान प्रतिशत अफगानियो के बुलन्द हौसलो को भी दर्शाता है। अशरफ घानी हो या अबदुल्ला आज अफ्गानिस्तान अपनी चुनी हुई सरकार पाने के लिए लालायित है। अफगानिस्तान विश्वपटल पर अपनी पुरातन गरिमामयी  उपस्थिती दर्ज कराना चाहता है हालांकि वर्तमान मे चारो ओर जमीन से घिरा अफगानिस्तान आज अपनी पुरातन गरिमामयी जमीन तलाशता नजर आ रहा है। कुछ इत्तफाक ऐसे होते है कि उनकी सामयिक विवेचना करने की जरुरत महसूस हो ही जाती है। यहाँ यह जानना जरुरी हो जाता है कि अफगानिस्तान की दोस्ती पर कुछ देश अपना अधिकार समझते है और अफगानिस्तान के कही भी दोस्ती के बढते कदम उन्हे नागवार गुजरते है। भौगोलिक स्तिथि का हवाला देते हुए पाकिस्तान कई बार अफगानिस्तान को इशारा कर चुका है कि अफगानिस्तान की जरुरते पाकिस्तान के बिना पूरी नही हो सकती, पाकिस्तान से ही दोस्ती करना अफगानिस्तान की मजबूरी बताने की कोशिश की जाती रहती है। 

भारत मे चुनाव के परिणाम आना और प्रधानमंत्री के शपथ लेने के बीच अफगानिस्तान मे हुआ घटनाक्रम ध्यान खीचता है। हाल ही मे हैरात मे भारतीय दूतावास पर हमला वैसे कोई पहला हमला नही था, लेकिन इस समय यह हमला विशेष इशारा देता हुआ दिखायी देता है। पहले भी भारतीय दूतावास पर ऐसे हमले हो चुके है, २००८ मे भारतीय दूतावास मे कार बम धमाका जिसमे ६० लोगो की जाने चली गयी थी २००१ से सामुहिक सेना की मोजुदगी के चलते हुए अमेरीकी राष्ट्रपति का अफगानिस्तान का गुप्त दौरा कहे या औचक दौरा कई सवाल खडे करता है। अमेरीकी राष्ट्रपति के अफगानिस्तान दौरे से अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार को भी अंधेरे मे रक्खा गया, बेगराम के अमेरीकी ट्रुप्स मे अमेरीकी राष्ट्रपति के दौरे मे अफगानिस्तान राष्ट्रपति से भी कोई मुलाकात नही हुई, ना अफगानिस्तान राष्ट्रपति बेगराम आये और ना अमेरीकी राष्ट्रपति काबुल गये, अफगानिस्तान राष्ट्रपति ने अमेरीकी राष्ट्रपति के बेगराम मे मिलने की इच्छा को भी यह कह कर टाल दिया कि यदि अमेरीकी राष्ट्रपति काबुल आते है तो हम उनका पूरे जोश से स्वागत करेंगे यदि व्हाइट हाउस काबुल का दिल जीतना चाहता है तो अमेरीका को अपनी नीतियो के बारे मे पुनर्विचार करना होगा इन सबके बावजूद भारत और अफगानिस्तान के संबंधो की गर्माहट मे कोई कमी नही आई है, अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अहमद करजई के हालिया भारत दौरे मे भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी  ने अफगानिस्तान को हर सम्भव मदद जारी रखने का वादा दौहराया है। इससे भारत और अफगानिस्तान के आपसी संबंध ज्यादा प्रगाढ हुए है क्षेत्रीय शान्ति बनाने की दिशा मे कदम बढाते हुए पाकिस्तान को भी अब ये सोचना पडेगा कि यदि पाकिस्तान अपनी तरक्की के लिए चीन से व्यापारिक संबंध बना सकता है तो अफगानिस्तान भी भारत से अपने संबंध प्रगाढ करने का उतना ही अधिकार रखता है

शान्ति बनाये रखने के लिए आपसी विश्वास का माहोल बनाने की जरुरत है, और ये उसके लिए एक उपयुक्त समय है पाकिस्तान मे आज एक मजबूत सरकार है जो कट्टरपंथियो पर दबाव बना सकती है और क्षेत्र मे जड जमा चुके आतंकवाद से कदम से कदम मिलाकर टक्कर ली जा सकती है अपार सम्भावनाओ वाले इस  एशियान समूह को पुनः चहुमुखी तरक्की के लिए मिलकर शन्तिपूर्ण माहौल बनाने के लिए त्वरित कदम उठाने की आवश्यकता है।