Sunday 30 March 2014

(यह रचना 17 अप्रैल 2014, दैनिक जागरण. आगरा  मे प्रकाशित हो चुकी है)
मान ना मान मै तेरा मेहमान
मुझे अपना नेता मान

मु्झे अपना सबसा बडा हमदर्द मान
विपक्षी तो सारे के सारे बेईमान
मेरे पूर्वजो ने बहुत दिए बलिदान
इसलिए मै ही हूँ सबसे महान
मान ना मान मै तेरा मेहमान
मुझे अपना नेता मान

नेताओ का मत करो अपमान
यही बचाते है देश का सम्मान
पूरा का पूरा देश कर दिया कुर्बान
तब जाके जुडा है घर मे विदेशी समान
मान ना मान मै तेरा मेहमान
मुझे अपना नेता मान

अपने डर को पहचान
हम ही बचाएंगे तेरी जान
जाँच एजेंसी जब पकडेगी कान
तब ढूंढेगा हमसे पहचान
मान ना मान मै तेरा मेहमान
मुझे अपना नेता मान

ये देश है स्वर्ग के समान
ये देश है सोने की खान
सब कुछ तू अपना ही जान
बस हमे दे दे हमारा लगान
मान ना मान मै तेरा मेहमान
मुझे अपना नेता मान

कौन कहता है सौ मे से अस्सी बेईमान
जरा बताओ कहाँ है वो बीस पहलवान
अभी चखाता हू इन्हे राजनीति का पकवान
इधर चखा पकवान उधर ये भी हम जैसे विद्वमान
मान ना मान मै तेरा मेहमान
मुझे अपना नेता मान

Sunday 16 March 2014

गत रात की बात
सोते अपने सपनो के साथ
आधी रात जाने क्या हुई बात
टूटा मेरा, नींद और सपनो का साथ

कुछ देर लगी थी यकीन दिलाने मे
नींद से खुद को बाहर लाने मे
टूटे सपनो को दिलाशा जुटाने मे
मुझे घूरते यक्ष प्रश्न का उत्तर पाने मे

उत्तर पाकर मै भी रह गया दंग
बेमतलब उभरे थे कुछ राजनैतिक प्रसंग
भयानक डर मुझ पर जमा रहे थे रंग
मेरे डर और मेरी नींद मे चली सुबह तक जंग

डाल बीज डर का मन मे अब कैसे पानी पिला रहे
भ्रष्टाचार गरीबी अल्पसंख्यक के पासे मे फंसा रहे
छोड समन्दर मे लहरो संग हमको झुला रहे
नैया पार लगाने वाले खेवक खुद को बता रहे

मेरे मिट्टी के सपनो को अपनी लहरो मे दफना देंगे
मेरे मौलिक सपनो की कल बोली वो लगवा देंगे
ये डर के सौदागर चुन चुन कर पर कतरेंगे
मेरे “डर मे ही जीत” वो अपनी, आम चुनाव मे पालेंगे