Friday 1 May 2015


कवर है तो कवरेज है 

एक बार चेहरे पर क्रीम पाउडर सही से लपेट लीजिए, फिर क्या है दुनिया में चाहे जिसे लपेट लीजिएचेहरे पर क्रीम पाउडर लपेटने में कोई कौताही क्यों बरतनी, काले पीले नीले जितने रंग हैं सब के सब झोंक देने चाहिएइन रंगो को रंग समझना नादानी ही कहा जाएगा, ये रंग नही है ये तो मिर्च है जो इन रंगो को देखने वाले की आंखो में झोंकी जाती है। इस रंगीन चेहरे को देखने वाले की आंखो में रंगो की मिर्ची झुकने के बाद देखने वाले को रंगीन चेहरे के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता। आज की सरपट दौडती जिन्दगी में इतनी फुरसत किसको है कि बात की तह तक पहुंचे, आज की दुनिया में चेहरे पर चढ़े कवर के हिसाब से ही कवरेज मिलता है। कवर की बढती कवरेज की सरपट दौड़ ने सब को पट कर रक्खा है। चेहरे पर कवर लगा कवरेज पाने का अधिकार नेताओं अभिनेताओं तक ही सीमित क्यों रहे, आज स्वतंत्र होने के नाते हर कोई चेहरे पर अपना नया रंगीन कवर लगाकर कवरेज पाने के लिए स्वतंत्र है।
इन्दीवर का लिखा गीतदिल को देखो, चेहरा न देखो चेहरे ने लाखों को लूटा हाँ, दिल सच्चा और चेहरा झूठाबेहद खूबसूरत है लेकिन आज काफी कुछ बदल चुका है। आज चेहरा ही देखा जाता है, चेहरे की किताब "फेसबुक" ही आज की सच्चाई है। चेहरे की किताब हिट जाती है या पिट जाती है, यह काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि फेसबुक के कवरफोटो में किसी बड़े नेता या अभिनेता के साथ नज़र आ रहे हैं कि नहीं। फेसबुक के जमाने में टाइमलाइन अर्थात इतिहास जानने की फुर्सत किसी को नहीं है। कवर फोट़ो पर निर्भर करता है कि फेसबुक प्रोफाइल को कवरेज दिलाने में कितनी कारगर होती है। यदि फेसबुक की इलैक्ट्रानिक किताब से कवरेज नहीं मिलता तो फिर प्रिंटिड किताब की तरफ बढा जाता है।
किताब में लिखा क्या है ये बाद की बात है लेकिन किताब का कवर और शीर्षक मे जबरदस्त आकर्षण होना चाहिए, कवरेज में कवर का ही खेल है। यदि किताब से भी कवरेज नही मिलता फिर भी घबराना क्या, यहाँ सम्भावनाएं खत्म नहीं होती। एक किताब से कवरेज नहीं मिलता तो दूसरी किताब लिखी जा सकती है शीर्षक होगा वन बुक इज नाट एनफ”, फिर भी कवरेज नही मिलता तो एक किताब लिखी जा सकती है बुक रिटर्न”, फिर एक किताब किताबो के संकलन की भी लिखी जा सकती हैनाट जस्ट वन किताब”, इसके बाद भी अनेकानेक किताबों की सम्भावनाएं है किताब ही किताबआदि आदि।
किताब से कोई हर्ट हो तो हो जाय कोई हर्ट होगा तो कोई फ्लर्ट होगा। किसी की त्याग भावना में ततैया लगता है तो लग जाय, उन्हे क्या किसी ने मना किया है कि वो किताब ना लिखे। वो भी अपनी एक किताब लिख दे और कर दे अपनी त्यागी भावना को सिद्ध, आने दीजिए बाजार में किताब की एक और किताब, किताब ही किताब।

रावण दहन
ज्ञान ऐसी चीज है जिसे जितना बाटो उतना ही बढता है। ये बात खुद में एक बड़े ज्ञान की बात है। ज्ञानप्रकाश अपनी बात यहीं से शुरू करते हैं। हाल ही में कुछ शानदार दशहरा पार्टी आयोजित की गयी। बालीवुड, हालीवुड और लेटैस्ट एलबम्स के नम्बर्सगानों पर सब झूठ पर सत्य की विजय को सैलीब्रेट कर रहे थे। गोलगप्पे, चाट पकौडी, गुंझिया, चीला जैसे कुछ लज़ीज व्यंजनों की स्टाल वातावरण को लज़ीज बना रही थी। बच्चो की रचनात्मकता बढ़ाने के लिए बच्चो को खुद गेम्स की स्टाल लगाने का मौका भी दिया गया था, जिन स्टाल्स पर बच्चो ने कैसीनो टाइप, प्लेइंग कार्डस आदि के बेहतरीन गेम्स बनाये हुए थे। उधर 15 फुट का शानदार रावण जाने किस बात पर इतना बारूद अपने अन्दर भरे फटने को तैयार खड़ा था, जैसे किसी बात से बहुत नाराज हो। रावण दहन के बाद के लिए हजारी लड़ी, स्काई शाट्स का भी प्रबन्ध था ताकि आसपास के इलाकों में भी रावण दहन की धमक महसूस की जा सके और उन्हे मैसेज दिया जा सके कि यहाँ सत्य की विजय को सैलीब्रेट करने वाले लोग रहते है।
अचानक ज्ञानप्रकाश पार्टी में आ धमके और जैसे ही ज्ञानप्रकाश जी ने अपने ज्ञान का बल्ब दमकाया, भली-चंगी चलती पार्टी की बत्ती बुझा दी। इधर ज्ञानप्रकाश रावण के चरित्र पर प्रकाश डाल रावण के चरित्र को चमका रहे थे, उधर पार्टी की चमक धूल चाटती नज़र आ रही थी। ज्ञानप्रकाश जी समाज के सम्मानित लोगो में थे, सो कोई कुछ कहने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहा था। लेकिन जैसे ही ज्ञानप्रकाश ने रावण को अहंकार का पुतला बताया और उसके अहंकार को उसके कुल के विनाश का कारण बताया, पार्टी में हडकंप मच गया। रावण का पुतला बोल उठा, क्या ज्ञान बाट रहे हो, चारो वेदो का ज्ञाता मैं, लंका को सोने की लंका बनाने वाला मैं, अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए मर मिटने वाला मैं, परायी स्त्री को माता के समान रखने वाला मै, फिर मैं अहंकारी कैसे हो गया। मेरा पुतला फूंकने वालो चार श्लोक पढकर तुम ज्ञानप्रकाश बन जाते हो, आज तुम ग्राम में सोना जुटाते हो खुद अपनी बहन बेटियों को असुरक्षा की भावना में जीने को मजबूर करते हो और मुझे अहंकारी बताते हो।
रावण का सुलगता बारूद कुछ कह रहा था कुछ सवाल खड़े कर रहा था, पार्टी में मौजुद सभी लोग अचम्भित थे लेकिन खुश थे। रावण अपने ही बारूद से धूँ धूँ कर जल रहा था, कुछ के चेहरे पर एक डर था, कुछ के चेहरे पर खुशी, कुछ रोमांच, इन सबके बीच के बीच रावण के रूप में बुराई अपने प्रतीक के रूप में दम तोड़ रही थी। रावण के धराशायी होते ही जोरदार आतिशबाजी ने रोमांच को दूना कर दिया और बुराई पर अच्छाई, झूठ पर सत्य की विजय की पार्टी फिर से अपने रुमानी दौर की तरफ आगे बढने लगी। रावण विदाई ले चुका था और अच्छाई बुराई पर चर्चा आरम्भ हो चुकी थी, शाही पनीर जीतता हुआ दिखायी दे रहा था लेकिन महिला वर्ग के आते ही गोलगप्पे अपनी जीत का दम भरने लगे, फीकी होने के कारण दालमखनी पहले ही दम तोड़ चुकी थी। कैशीनो का गेम ताश के पत्तो से कहीं ज्यादा बड़ी रकम इकट्ठी कर अपनी जीत पक्की कर चुका था। मीठे हनी से गानों ने बालीवुड के गानों को धूल चटा दी। इस दशहरा पार्टी में बहुत कुछ जीता और हारा गया। अफसोस जितनी आवाज पटाखो और हनी गानों की बढती गयी रावण का अट्ठाह्स भी उससे कई गुना बढता गया, जो शायद ज्ञानप्रकाश के बहरे कानों तक नहीं पहुँच रहा था।

विजयी सत्य है
ये सत्य भी ना बस, कोने में कहीं छुपा, सुकडा सा बैठा मिलता है, कोई अपने पास पलभर बैठाने के लिए तैयार नहीं है। इसके बावजुद सत्य ये दावा ठोकने से नहीं चूकता कि साँच को आँच नहीं। सत्य के लिए ऐसी आँच कहाँ से लाऊ जो उसकी सिकुड़न दूर कर दे, ये कोई सर्दी की सिकुड़न तो है नहीं कि आंच से दूर हो जायेगी। सत्य और झूठ मे कबड्डी के खिलाडियों की तरह का खेल चलता रहता है, बस डैन झूठ को ही देनी होती है। जो है वो तो है ही, उसकी सत्यता से कौन इन्कार कर सकता है, लेकिन बडी बात तो तब है जो नहीं है फिर भी है, भले ही आज वह एक जुझारु संघर्षशील झूठ है, जो एक स्थापित सत्य को चुनौती दे रहा है। जिसने कुछ ऐसा सोचा जो अभी तक स्थापित सत्य नहीं है अर्थात अभी तक झूठ है, उसी ने दुनिया में नई खोज की है और दुनिया को नयी दिशा दी है। जब-जब कोई झूठ जीतता है, जीतते ही सत्य उसे अपने पाले में खींच लेता है। झूठ तब तक झूठ है जब तक वह जीत नहीं जाता। विजयी सत्य है। आज यहाँ तो कल वहाँ, जहाँ विजय वहाँ उत्सव, यही रीत है। क्या ये विजय उत्सव वर्तमान सत्य की भूतपूर्व सत्य पर विजय का उत्सव है, क्योंकि सत्य तो पहले से ही विजयी है तो फिर उत्सव क्यो?  
बच्चो को भी अपनी परीक्षा में ट्रयु फाल्स के प्रश्नो से रूबरू होना पडता है। प्रथम सत्र में तो यही ट्रयु था कि डा॰ श्री मनमोहन सिंह हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं”, फाइनल परीक्षा आते-आते फाल्स हो गया। आज "श्री नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं“, यही ट्रयु है। कोई विद्धार्थी यदि इसे ऐसे समझे कि कोई सत्य अन्तिम सत्य नहीं होता। आज जो फाल्स है, वही आने वाले समय का सत्य हो सकता है इसलिए फाल्स को एक सिरे से नकारा नहीं जा सकता। वही आज जो सत्य है, वह कल फाल्स हो सकता है, इसलिए तत्कालिक सत्य को अन्तिम सत्य मानना भी सही नहीं है। क्या पुरातन सत्य को सिहांसन से हटाकर नूतन सत्य खुद के लिए जगह बनाता है? नूतन सत्य स्थापना के बाद पुरातन सत्य क्या सत्य नहीं रह जाता? क्या हर सत्य का भूत झूठ है? झूठ और सत्य का क्या पता, जब तक परखा ना जाय। विभीषण ने तत्कालिक सत्यता अर्थात रावण को परखा और अपनी जीवन्तता साबित की। सत्यता की निरन्तर खोज ही जीवन्तता का प्रमाण है। सत्य का रास्ता दुनिया नहीं सह सकती। बापू जी का जीवन देखिये, उन्हे जब कोई दूसरा मारने के लिए तैयार नहीं होता था तो वे अपनी आत्महुति देने पर तुल जाते थे। सत्यता को भी बारम्बार परीक्षा से गुजरना पड़ता है, खुद को सिद्ध करना पड़ता है।
ऐसा कहा जाता है कि सच्चाई कड़वी होती है इसलिए थूक दी जाती है। किसी से सुना था कि हनुमान जी ने एक भक्त से प्रसन्न होकर वर मांगने के लिए कहा। भक्त ने हनुमान जी से हनुमान जी जैसी शक्ति मांगी। हनुमान जी के समझाने के बावजूद हनुमान जी को भक्त की जिद के सामने विवश होकर शक्ति देनी पडी और परिणामस्वरूप भक्त का शरीर फट गया क्योंकि भक्त का शरीर उस शक्ति को समायोजित नहीं कर पाया। शायद सत्य की शक्ति भी ऐसी ही होती है जिसे समायोजित करने के लिए पहले खुद को तैयार कर लेना जरूरी है। तब तक यही सही माना जा सकता है कि सच्चाई कडवी होती है इसलिए इसे थूक दिया जाता है।

विज्ञापन ही विज्ञापन
दिवाली के शुभ अवसर पर पटाखे, फुलझडी, दीपक आदि गुजरे जमाने की बात हो गयी, यहाँ-वहाँ जहाँ भी देखो बस तीन चीजें नज़र आती हैं, विज्ञापन, विज्ञापन, विज्ञापन। आज विज्ञापन ही विज्ञापन सपनों में आता है, फिर दिल में समा जाता है, ठंडी-ठंडी हवाएं चलने लगती है, अहसास खुशनुमा होने लगते है, जिन्दगी अचानक महकने लगती है और चिडियाओं की चहक एक नये भौर का अहसास देने लगती है। आज विज्ञापन इतने शानदार होते है कि जैसे ही किसी चैनल पर प्रोग्राम आता है, चैनल बदल कर किसी दूसरे विज्ञापन चैनल पर लगा लिया जाता है। दुखदायी खबरों से खचाखच भरे अखबार में अगर खुशखबरी वाले विज्ञापन ना हो तो हर दिल बोल उठेगा "बस कर अब रुलायेगा क्या"। सडको पर पहरेदार से खडे बडे़-बड़े होर्डिग्स ही हर सफर के हमसफर होते है, होर्डिग्स पर लगे बडे़-बडे़ स्टार्स के कटआउट ऐसे लगते है जैसे अभी पोस्टर फटेगा और स्टार हमारे ऊपर छल्लांग मार देगा। एक विज्ञापन ही है जो क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्मवाद जैसे स्वाद का शौकीन नहीं है, इसकी कृपा सब पर बराबर होती है। लिंगानुपात में सामंजस्य बनाकर विज्ञापन अपनें सामाजिक धर्म को भी बखुबी निभाता है, इधर दिवाली आती है और उधर दिवाला निकल जाता है। डिस्काउंट आफर ऐसे निकलते हैं कि सारे अकाउंट "डिस्टर्ब अकाउंट" हो जाते है।
विज्ञापनों से कितना ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है उसे इस प्रकार समझा जा सकता है। कोई घर में अकेला रहता हो और उसके पास कोई बात करने को ना हो तो दिवारों पर ऐसा पेंट लगाया जा सकता है कि दिवारें बोल उठेंगी, फिर क्या आराम से बैठकर बोलती दिवारों के साथ बातें कीजिए। यदि किसी को समझदार बनना है तो उसे डाक्टर, इंजीनियर आदि बनकर अपनी समझदारी साबित करने की जरुरत नहीं है बल्कि अपने घर को चमका दीजिए फिर लोग तो आपको समझदार समझेंगे ही, फिर सब बम डिफ्यूज कराना हो या अपनी लडकी के लिए लडका तय करना हो सब आपके पास ही आएंगे। यदि कोई ज्यादा घुमा फिराकर बात करता हो उसे ऐसा पेय पदार्थ पिलाया जा सकता है कि उसके बाद नो बकवास केवल सीधी बात होगी। यदि लाइफ सुनसान राहों का शिकार हो गयी है और लाइफ मे तूफान लाना है तो खान साहब के पास एक ऐसा पेय पदार्थ है कि सब तूफानी कर देगा। यदि कोई गूंगा है तो उसे किसी डाक्टर के पास लेकर जाने की बिल्कुल जरुरत नहीं है, बस उसे एक मोटरसाईकिल का माइलेज बताना है, माइलेज सुनते ही गूंगा झट से बोलने लगेगा। यदि कोई कपडे बदलते बदलते परेशान हो गया है और अब जिन्दगी बदलना चाहता है, तो उसके पास कुछ हो ना हो आइडिया होना चाहिए। अब कहीं पुलिस पकड़ ले, अखबार में लिपटे मूँह वाला फोटो छप जाय या सीसीटीवी फुटेज में कुछ खुलासा हो जाय आदि कोई भी दाग क्यो ना लग जाय  भी कोई घबराने की बात नहीं, क्योंकि दाग अच्छे है।

आइसक्रीम विद् हाटॅ चाकलेट

इधर ठंडी अपनी आहट महसूस कराने में लगी है, उधर चुनाव और दिपावली अपनी गरमाहट का सिक्का जमाने में लगे हुए है। ठंडी में ठंडे पानी संग गाना गाते हुए नहाने का अपना अलग ही मजा है। भले ही ठंडी का समय हो गया है लेकिन अभी ठंडी को शायद किसी का इन्तजार है। हुदहुद का बहाना लेकर ठंडी ने अपनी दस्तक दी लेकिन शायद दिवाली और चुनाव की गरमाहट को भापते हुए, हुदहुद और ठंडी ने अभी अपनी हद में रहना ही सही समझा। ठंडी की ठंड पर चुनाव और दिपावली की गरमाहट का ऐसा मजा आ रहा है कि जैसे वनीला की आइसक्रीम पर हाॅट़ चाॅकलेट लपेटकर सर्व की गयी हो।
चुनाव होगा तो कुछ सब अपने-अपने विचार भी बताएंगे, जनता को सोचने के लिए मुद्दे भी तो चाहिए ताकि जनता सही रूप में मुल्यांकन कर सके कि अबकी बार किसे सत्ता सौपनी है। जनता इतनी खाली तो है नहीं कि पिछले पाँच साल का पूरा मुल्यांकन कर सके, पाँच साल सत्ता पक्ष ने क्या किया, इसका विश्लेषण करने के लिए जनता विपक्ष भी चुनती है। चुनाव आने पर पर विपक्ष की जिम्मेदारी बनती है कि वह जनता को पाँच साल का पूरा-पूरा  हिसाब दे। यदि चुनाव में गरमाहट नहीं है तो ये तो पूरी तरह विपक्ष की नाकामयाबी ना मानें तो फिर क्या मानें, विपक्ष की जिम्मेदारी है कि मुद्दे उठाए और चुनाव में गरमाहट पैदा करे। वोटिंग होते ही एग्ज़िट पोल की चटर-पटर शुरु हो गयी है। कयासबाजों ने कयासों का काढ़ा पिला-पिलाकर खोपड़ी  को गरम कर दिया है। कयासें लगायी जा रही हैं कि कौन-सा स्काई शाट ज्यादा ऊपर जायेगा और आसमान में फट़ने के बाद किसका कितना फैलाव होगा। जल्द ही ये भी पता लग जायेगा कि कौंन इन्टरनेशनल खिलाड़ी निकलता है और कौंन अपने भोलेपन का खुद शिकार होता है। हुदहुद का शरद को लाने में जरूर हाथ है लेकिन अभी बरसात का असर पूरा-पूरा है, फल-फूल अपने पूरे शबाब पर है। वैसे भी अब राजनीतिज्ञो को ये समझ ही लेना चाहिए कि जितना कीचड उछाला जा रहा है कमल उतना ही बढ रहा है। समय समय की बात है जहाँ कल तक सब गठबंधन की राजनीति के पक्षधर थे, आज गठबंधन तोड़़ने में ही सम्भावनाओं को तलाश रहे हैं। वैसे ये भी ठीक ही है शायद, यदि सीट शेयर पर कोई नतीजा नहीं निकल रहा तो परिणाम के बाद सत्ता शेयर का रास्ता तो खुला रहता ही है।
पटाखे या झालरो की सजावट की बात नहीं है, जिसकी वजह से दीपावली ठंडी में गरमाहट पैदा कर रही है, दीपावली की गरमाहट के पीछे कई कारण और भी हैं। जुआ यूँ तो कोई भी भला सामाजिक मानुष सही नहीं मानता लेकिन क्या करें इसका सगुन मेला करना भी जरुरी है। महाभारत के प्रसंग से सीख लेनी चाहिए कि जुआ खेलते समय अपने ऊपर कान्फीडैन्स में जितनी मजबूती होगी, जूए में जीतने की सम्भावना भी उतनी ही प्रबल होगी। महाभारत के प्रसंग से यदि कुछ सीखना है तो वह है "कान्फीडैन्स की प्रबलता का महत्व"। अब बात कान्फीडैन्स की ही है तो उसके लिए मदिरापान भी जरुरी हो जाता है। यदि कोई कहता है कि मदिरा के सेवन से स्वास्थ पर बुरा असर पडता है तो वह बिल्कुल गलत कहता है, बल्कि कहना चाहिए कि वह पूर्णतः अज्ञानी है। शरीर का क्या है, ये तो केवल एक पहनावा है, जरुरत तो अन्तरात्मा से शुद्ध होने की है। आत्मा अमर है, ना आत्मा मरती है ना कोई इसे मार सकता है। इसलिए बाहरी सफाई जैसी भी हो एल्कोहल से आन्तरिक शुद्धीकरण के साथ कान्फीडैन्स मजबूत कर ही दीपावली मनाने की जरुरत है।
आज बदले परिवेश में क्या त्यौहार और क्या चुनाव सब बदल रहा है, तो फिर मौसम बदल रहा है तो क्या गलत कर रहा है। उत्तराखण्ड हो या जम्मु काश्मीर या फिर ताजातरीन हुदहुद कहीं ना कहीं कुछ बेहुदे बदलावों की तरफ इशारा करते दिखायी देते हैं। बाकी जो है सो है ही, जब तक चल रहा है तब तक आइसक्रीम विद् हाटॅ चाकलेट का आनन्द लीजिए।