Sunday 27 April 2014


अंधकार है अंधे नही है

यह लेख 17मई को i-next Dainik Jagran मे प्रकाशित हो चुका है
आंखे बन्द करना ही काफी नही है, छोटी-बडी सभी बत्ती बुझा दो, जर्रा जर्रा अंधेरे के आगोश मे होना चाहिए, अच्छी नींद के लिए ये सब करना जरूरी है। ऐसी रात का अंधियारा क्या बुरा है जिसमे कुछ खुशनुमा सपने हो, कुछ रहनुमा से अपने हो, ऐसे अपने सपने जपने मे अपना या किसी का क्या जाता है, आता जरुर है, आता है “एक अहसास”  रहनुमा की शक्ल लिए महानुभावो को नुमाइश से रिहाइश मे देखने का,  अहसास है तो क्या ? ये तो मेरे अपने अंधियारे के परोसे अहसास है, उजाले तो आते ही ये भी छीन लेंगे । 
रात काली है तो क्या हुआ ये तो देखने वाले की दूषित मनोवस्था का दोष है जो काले को बुरा मानता है, ये काली रात ही तो है जो दिन महीने साल बीत जा्ने पर भी नही बदलती है। अच्छे बुरे दिन सभी के आते है, लेकिन क्या कभी किसी को कहते सुना है कि जीवन मे अच्छी बुरी राते आती रहती है। इस रात की सुबह नही, हो भी क्यो? ना मुझे ना अंधेरे को शिकायत फिर क्या करेगी रात?
पाँच साल बाद आती है ये रात, जो ऐसे ऐसे सपने दिखाती है कि हकीकत भी झेपने लगती है। सांछ ढले जैसे जैसे उजाला अपनी लालिमा की तरफ बढता है, चर्चाए जोर पकडने लगती है, “अबकी बार दुल्हा असरदार”, “दुल्हा असरदार नही दुल्हा समझदार हो” आदि आदि, फिर सेहरा बाँध कर अपनी बडी-बडी कसमो वादो की बारात लेकर दुल्हा आ ही जाता है। फिर क्या घराती, क्या बाराती सब लग जाते है नाचने और बाचने “छटने ना पाए अंधकार, अबके दुल्हेराजा की सरकार"। कुछ आतिशबाजियाँ भी इस बारात का अभिन्न अंग होता है, भले ही इन आतिशबाजियो के धुए से घराती बाराती खासते खासते परेशान हो जाय और कभी कभी कुछ अनहोनी का शिकार भी भी क्यो ना हो जाय, लेकिन सभी अपनी अपनी पसंद के अनुसार इस आतिशबाजी से अपना मनोरंजन करने से नही चूकते। 
ऐसे ही रात मे दुल्हे राजा सपने मे रूप रखकर आते है और सारी की सारी दहिया पीकर चले जाते है। कसमो वादो की बारात मे झूमते घराती ये अपनी छाछ संग रुखी सूखी रोटी भी गंवा बैठते है। तारो की छाव मे बाबुल की  लाडली जैसे हाथ से रपटती हुई, उंगली पर अपना निशान बनाती, दुल्हेराजा के घर को स्वर्ग बनाने निकल जाती है। बाबुल दुल्हेराजा की तरफ होठ हिलाते बिना स्वर के अपने अन्तर्मन का अहसास करता है और अपनी लाडली को बाबुल के आंगन मे पाये संस्कारो पर चलने का रास्ता बताते हुए, मुँह फेर लेता है। 
स्वर्णीम युग की तलाश मे चंदा की चांदनी मे बटोरी चांदी भी काली रात सी काली पड जाती है और रह जाती है तो एक तलाश, एक और अंधेरी रात की, सपनो की सैगात की, एक नये दुल्हे के साथ की, फिर कुछ कसमो वादो की बारात की। अंधेरो मे आये सपने बन्द दरवाजो से आते है, ये चोर सपने होते है, दिन के सपनो को स्वीकार करना होगा, यही सच्चे सपने है। सपनो को सच्चा करना है तो इन्हे अंधकार से निकालना होगा, अपने सपनो को उजाला दिखाना होगा। कसमो वादो की बारात नही, आतिशबाजियो की सौगात नही, विचार मंथन और मुद्दो पर बात कर, अंधकार के अंधेपन से पार पाकर उजालो की हकीकत को स्वीकार कर  अपने सपनो को सीचना होगा।


Thursday 17 April 2014


ये भाप नही है, इसे भापना पडेगा

भक्ति मे शक्ति है, जितने ज्यादा और अतिविश्वासी किसी के भक्त होंगे, उसकी शक्ति उतनी ही ज्यादा होगी। शक्ति के शीर्ष पर वही पहुँचते है, जिनके पास विश्वसनीय भक्तो की शक्ति होती है, केवल विश्वसनीय ही नही बल्कि ऐसा विश्वास जो समय के साथ अन्धविश्वास मे बदल जाय। कोई भी आम से निकल कर ही खास बनता है और उसका खास बने रहना, भक्तो के अन्धविश्वास पर निर्भर करता है। हे शीर्ष स्थानेच्छित, यदि शीर्ष स्थान पाना है और शीर्षस्थ बने रहना है तो अपने भक्तो मे अपने लिए अटूट विश्वास पैदा कर और जैसे ही विश्वास का पौधा अपनी जड पकड जाय, उनकी आँखो मे धूल झोक दे, ताकि उसके बाद उन्हे सर्वत्र तेरा ही तेरा रूप नजर आये और  तेरा विश्वास अन्धविश्वास मे बदल जाय। अपने इस विश्वास मे डर का छोंक भी लगा, जिसमे जो भी डर हो उसे कुरेद कुरेद कर नासूर बना दे, उसके नासूर के बारे मे लगातार उससे चिन्तन कर ताकि वह तुझे ही अपना सबसे  बडा नासूर चिन्तक माने।


गरीब के डर को तडका दिया गया, शीर्षस्थो ने अपना विश्वास जमाया कि हम ही है जो गरीबी से छुटकारा दिला सकते है। ऐसा नही है कि गरीबी की समस्या से निपटने के बिल्कुल प्र्यास नही किये, लेकिन केवल एक विश्वास पैदा करने के लिए। नतीजतन, भक्त अपने विश्वास को मजबूत करते चले गये और प्रयास कमजोर होते गये। शीर्षस्थ जानते थे कि ये डर कारगर है लेकिन इस डर को अगली पीढी के दिलो-दिमाग मे जगह बनाने के लिए नये फार्मुले की तलाश की गयी, अगली पीढी मे रोजगार के डर का छोक लगाया गया और विश्वास दिलाया गया कि शीर्षस्थ तुम्हारे रोजगार के लिए चिन्तित है और जो जितनी भक्ति दिखायेगा, वह उतने प्रतिशत रोजगार पायेगा। शीर्षस्थ अब अपने अपने प्रतिशतो मे दूसरे प्रतिशतो के डर का छोक लगाकर, अपना अपना विश्वास जमाने का काम करने लगे।


अंधभक्ति जाग्रति कार्यक्रम मे प्रतिशत का फार्मुला सबसे कारगर रहा, इस फार्मुले की भेदन क्षमता गजब की थी या कहे अभी भी है, इस फार्मुले का अंधीकरण पीढी दर पीढी अपनी जडे मजबूत करता गया, वो भी बिना किसी ज्यादा खाद-पानी के। प्रतिशत के अंधीकरण के फार्मुले की आंधी के सामने सारे छोक, गरीबी, रोजगार, महंगाई जैसे सारे मुद्दे, सारी विचारधाराए धूल चाटती नजर आयी। आज प्रतिशत सर्वत्र सर्वव्यापी है, इसके अलावा सब बडे छोटे मुद्दे, चर्चा चिन्तन और मंथन से बाहर अपनी जमीन तलाशते, भटकते और सिसकते नजर रहे।


विश्वासी जनो के बीच एक वर्ग बन रहा है जिसमे मे छटपटाहट है, नयी सरसराहट है दिल्ली, बिहार, गुजरात, मध्यप्रदेश मे प्रगतिशील नीतियो ने भी अपनी जगह बनायी ही है और नीतियो मे दम था तो उन्हे बारम्बार अपनाया भी गया। उत्तर प्रदेश मे भी नये पढे लिखे चेहरे पर विश्वास किया ही गया। दिल्ली इस मामले मे सबसे बडे दिल वाली निकली, उसने शीर्षस्थो को एक आहट का अहसास तो कराया ही। एक वर्ग अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहता है जो अंधभक्त, अंधविश्वासी नही है और चर्चा, चिन्तन, मंथन मे खुले दिमाग से भागीदारी निभा रहा है। आज इस नयी सोच का कितना वजूद है या कहे दिखायी दे रहा है ये अलग बात है लेकिन एक उम्मीद की किरण के रुप तो देखा ही जा सकता है। शीर्षस्थो को इस आहट को भापना जरुरी है, इसे भाप मे नही उडाया जा सकता ।

Wednesday 16 April 2014

ये कीकर, ये बबूल मेरे लिये वादी हो चले है,
इन अंगारो भरी राहो के हम आदी हो चले है।


लम्हा-लम्हा भुलाया कभी, अभी यादो मे पहर है बाकी,
मैकदा खाली, खाली पैमाने, किसके इन्तजार मे साकी,
अंधेरी रात है यहाँ, वहाँ सितारो की महफिल सजी होगी,
पाने को मंज़िल-ए-मकसूद रात को एक पहर है बाकी।


मोदी गान
मोदी से जगा नया विश्वास है,
जी॰ डी॰ पी॰ बढने की आस है,
महंगाई ने तो मार ही डाला था,
मोदी से आयी साँस मे साँस है।
राहुल गान
राहुल देश के युवाओ की आन-बान है,
दस सालो मे देश को बनाया महान है,
मैट्रो स्कूल एयरपोर्ट सब कुछ है दिया,
राहुल के विकास के सपने मे जान है।
केजरीगान
सबको मिला मौका अब केजरीवाल की बारी है,
भ्रष्टाचार महंगाई की देश से मिटानी बिमारी है,
उन्नचस दिन, उनके पूरे साठ साल पे भारी है,
आप बहुत क्रान्तिकारी बहुत ही क्रान्तिकारी है।


हैप्पी होली, हमजोली संग ठिठोली, मजा ही कुछ और है,
पानी मे डले रंग, रंग पर चढे भंग, मजा ही कुछ और है,
जमकर रंगलो प्यार,गुंजिया रही पुकार, हुडदंगी त्यौहार,
पिचकारी की धार, फुआर पलटवार,मजा ही कुछ और है।
 


होली आई होली आई, आई होली खोली मे,
टोली लेके आये नेता वोट मांगने खोली मे,
नीले पीले हरे गुलाबी, बोलो कैसा लोगे रंग,
रंग बिरंगे सपने लेकर आये नेता झोली मे।
 
 
 

Saturday 5 April 2014

मै हूँ कौन?

मै तो स्टपनी हूँ जब भी मेरी जरूरत पडे  अपने काम को पूरी तनम्यता से अंजाम देना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। जब भी कार मे पन्चर हो जाता है, मेरा मालिक मेरी तरफ देखता है और देखता ही नही, उसकी नजर मे एक खुशी, उम्मीद और आत्मीयता का जो बोध होता है, दिल बाग-बाग हो जाता है, बस वही से मुझमे एक अपार उर्जा का संचार हो जाता है। बुरा तो लगता है, जब कोई कहता है कि कार चार पहियो पर चलती है, या कार एक चौपहिया वाहन है, लेकिन जिस दिन मेरी जरुरत पडती है, उस दिन मालिक की झाड इन पहियो पर पडते और मुझ पर प्यार बरसते नजारे से सब घाव भर जाते है।  ये चार पहिये भी मेरे भाई-बन्द जैसे ही है, ज्यादातर तो मालिक की कार को यही दौडाते है, मै तो बस ... एक कोने मे। हर काबलियत मुझमे है लेकिन फिर भी मुझे मेरी बिरादरी से निकालकर एक नया नाम दे दिया गया हैस्टपनी कभी जब इतराकर ये चार पहिये मुझे अहसास भी कराते है, लेकिन जब मेरा अहसास कराने का अवसर आता भी है तो मेरी घूमने की चाहत कहो या खुद को पहिये जैसा देखने का सुकून या मालिक की हालात पर दया या मालिक के लिए वफादारी, मै अपने को पहिये सा घूमने से नही रोक पाता। जो पहिये निरन्तर घूमते है और मालिक की कार को रफ्तार देने का दम भरते है, वो चार पहिये और मालिक भी इस बात को अच्छी तरह समझते है कि इस रफ्तार को विश्वास मै ही देता हूँ, जरा कोई झूठे से भी मेरी तबीयत नासाज बता दे तो मालिक के पेट मे पानी हो जाता है और रफ्तार का विश्वास तार-तार हो जाता है। मेरे मालिक का मेरी काबलियत पर विश्वास ही वह कारण है जिसने मुझे यह जगह दी है, मालिक जाते है कि जरुरत पडने पर मै अपने काम को पूर्ण समर्पण और सफलता के साथ अंजाम दूंगा मुझे पता है कि मालिक मेरा काम पूरा होने पर पुनः मेरी जगह पहुंचा देगा और मै भी अगले पन्चर तक जमकर मंथन  मे जुटा रहुँगा कि मुझे बडी जरुरत के समय दौडने के लिए तैयार रहना है। एक दिन जब मै जरुरत के समय घूमने मे असक्षम हो जाऊंगा तब मुझे भी चार पहियो की बिरादरी मे शामिल कर लिया जायेगा और तब मै भी घूमुंगा……  …… शायद।
मै तो एक कार्यकर्ता हूँ, चुनाव आया है, मेरे वरिष्ठ ने मुझे बुलाया है। वरिष्ठ की नजर मे एक खुशी, उम्मीद और आत्मीयता का जो बोध था देख कर दिल गद-गद हो गया वरिष्ठ ने आज मुझे बुलाया, बैठाया फिर पुचकारा, दुलारा और बताया कि टिकट मिल गयी है और अब मेहनत का समय आ गया है जनता के अन्दर तुम्हारी छवि भी अच्छी है और जनता तुम पर बहुत विश्वास भी करती है। जनता क्या चाहती है, ये भी तुम अच्छी तरह जानते हो। मालिक का सोचना भी सही है, जमीन पर दौडने का जितना अनुभव हमे है मालिक को कहाँ, मालिक तो कार मे ही दौडते है। बस कुछ देर की ही तो बात है, इधर पहिया को हटाकर स्टपनी लगानी और जैसे ही कही सुरक्षित पडाव आया, मालिक पन्चर वाले पहिये को ठीक कराकर, मुझे मेरी जगह पहुचाकर, फिर से लगाकर फर्राटा भरेंगे जी हाँ, जमीनी तो मै ही हूँ यदि वरिष्ठ जमीनी हो गये तो मेरे अन्दर लाख अच्छायी हो फिर तो सब सीधे वरिष्ठ के पास ही जायेंगे जमीनी जनता जब आसमानी वरिष्ठ से दुत्कार पाती है तब वह मेरे पास ही आकर सत्कार पाती है, मै भी जमीनी और जनता भी जमीनी होने के नाते हमारा एक लगाव बना रहता है, बस फर्क इतना है कि उनका दर्द चेहरे पर और मेरा दिल मे होता है
आज मुझे अपने वरिष्ठ के साथ जमीनी जनता के पास जाना है और अपनी भोली जनता के दिमाग मे अपने वरिष्ठ को जम छवि से जमीनी छवि के रुप मे जनता के बीच जमाना है जनता के बीच जो विश्वास मैने बनाया है बस उसी को वरिष्ठ के लिए भुनाना है, सारे नकारेपन को नकारकर अपने वरिष्ठ का सर्वगुण समपन्न साकार प्रतिबिम्ब बनाना है, सारे नकारेपन का जिम्मेदार विपक्ष को ठहराना है मुझे पता है सन्पत को बही आना है जहाँ गणपत को जाना है, इसलिए सन्पत की तरफ मुस्कुराते हुए हाथ हिलाना है और गणपत को गले लगाना है जात सिंह को बस बिरादरी धर्म बताना है, उसे तो साथ आना ही आना है बरगद लाल अपने समाज मे असरदार है, उसे उसके स्कूल मे कराया हुआ विकास कार्य याद दिलाना है, आगे भी विकास कराना है इसलिए उसे दस गाडियो के लावलंगड के साथ हमारे साथ आना है। साम दाम दंड भेद कब कहाँ क्या अपनाना है, इस जमीनी हकीकत से वरिष्ठ को वाकिफ कराना है। मुझे अपने मालिक की कार को फर्राटे से दुडवाकर अपना धर्म निभाना है

मुझे स्टपनी कहो या कार्यकर्ता चाहे, मेरा अंजाम जो भी होअपनी पहचान की रक्षा के लिए मै अपने काम को पूर्ण समर्पण के साथ अंजाम दूंगा

Wednesday 2 April 2014


एक लन्च भोजनालय मे
कुछ ही दिन पहले, दोपहर भोजन के लिए एक भोजनालय मे जाना, एक घटना बन गयी। एक बार शाम को, पहले भी वहाँ खाना खाया था, अच्छा लगा था, सो मन मे वही पर एक बार फिर खाना खाने की इच्छा हुई। रिसेप्शन पर एक ३०-३५ साल के युवा ने स्वागत मे स्माईल दी और मैने भी स्माईल देकर स्वागतीय स्माईल को स्वीकार किया। रिसेप्शन की मंचनुमा टेबल पर कुछ मीनु कार्ड रक्खे थे। वही से मैने एक मीनु कार्ड का अध्ययन करना शुरु कर दिया, तुरन्त ही रिसेप्शिनिस्ट ने मुझे एक अर्धपारदर्शी दरवाजे की तरफ इशारा करते हुए, अन्दर बैठने को कहा कि सर अन्दर आराम से बैठिये, वही पर अपना आर्ड्र दे दीजिए और मीनू कार्ड भी वही पर है। शायद रिसेप्शिनिस्ट के मन मे रहा होगा कि कही मीनू कार्ड देखकर ही ना खिसक ले क्योकि रेस्टारेंट के रेट भी ठीकठाक ही थे। लेकिन मैने रिसेप्शिनिस्ट की बात को आदेश की तरह मानकर तुरन्त अर्धपारदर्शी दरवाजे की तरफ रुख किया।
जैसे ही दरवाजे की तरफ कुछ कदम बढे और पारदर्शिता कुछ बढने लगी, कदमो की गति कुछ धीमी पडी और संशय की जकडन मुझे अपने पास मे ले रही थी। अन्दर का नजारा देखकर एक प्रतिरोध का आभास दे रहा था लेकिन आभास का यथार्थ देखने की उत्सुकता कहे या बढे कदमो को ना रोक पाने की स्तिथि मेरा हाथ दरवाजे की तरफ बढ गया और दरवाजे को खोलने के लिए हाथ मे दरवाजे के हैंडिल को मैने जकड लिया। दरवाजा शायद काफी भारी था सो कुछ दबाव के बाद लगभग आधा दरवाजा खुल गया और मेरा एक पैर और धड के ऊपर का हिस्सा अन्दर प्रवेश कर गया। स्तिथि सोच से कही व्यापक निकली, एक आध नही कई युवा जोडे वहाँ बैठे हुए थे, कही हाथ मे हाथ तो कही हाथ कंधे पर, कही कंधे पर सिर तो कही  सिर  गोद मे......... मैने खुद को अन्दर जाने के लिए अयोग्य पाते और खुद को समझाते हुए, खुद को बाहर खीचा और खुद को रिसेप्शन पर पुनः स्थापित किया। तुरन्त ही रिसैप्शनिस्ट को वापसी की एक यथाउत्तम दलील पेश की, कि खाना पैक ही करा लेते है, रिसैप्शनिस्ट ने जी मे जबाब देकर बात को निपटा दिया। रिसैप्शनिस्ट ने मुझे मीनु कार्ड के साथ स्वतंत्र छोड दिया लेकिन डिश चुनने पर तो ध्यान ही नही था, कशमकश कुछ और ही चल रही थी, जल्द ही खुद को कुछ सम्भाला, सबसे पहले छोले भटूरे पर ही नजर पडी और वही पैकिग के लिए आर्डर कर दिया।
एक के बाद एक प्रश्न उभरने लगे कि ये जैनरेशन कौन से रास्ते पर चल रही है ?, क्या ये भटक नही गयी है?, क्या इस रास्ते पर चलकर ये जीवन मे सफलता की तरफ आगे बढ सकेंगे?, जी हाँ, शायद रास्ता तो सही नही है, भटके हुए भी है और ये रास्ता सफलता मे  बाधक भी बन सकता है, लेकिन प्रश्न यह नही है कि इस रास्ते पर चलकर ये जीवन मे सफल होंगे या नही.. यहाँ विचारनीय यह है कि ऐसा क्यूँ हो रहा है और कैसे सही रास्ता दिखाया जा सकता है? भोजनालय की इस घटना को जो एक आम परिदृश्य है, एक समस्या ना भी माने तो आज परिजनो के लिए एक चुनौती का रुप तो ले ही चुकी है, आईये इस चुनौती से कुछ बातचीत करने की कोशिश करते है।
बचपन से किशोरावस्था मे प्रवेश के समय होने वाले बदलाव से बच्चो की मनोदिशा दोराहे पर होती है, इस समय की मनोदशा मे  नये विचारो का सृजन, कुछ कर गुजरने का जोश, अस्तित्व की चाहत  अपने चर्मोत्कर्ष पर होता है। जब नये विचारो का सृजन होता है तब उन नये विचारो पर मंथन के लिए किसी की जरुरत होती है जहाँ वह अपने विचारो पर किसी की मोहर लगाकर आगे बढ सके, अपने विचारो पर मोहर लगने के बाद वह अपने पूरे जोश से उनके अनुपालन मे लग जाता है क्योकि वह अपने अस्तित्व को स्थापित करने मे कोई देरी नही करना चाहता। अपने नये विचारो को शायद वह किशोर अपने सबसे करीबी से ही बाँटना चाहेगा और क्योकि वह किशोर बचपन से अभी अभी किशोरावस्था मे आया है और बचपन के उसके सबसे करीबी उसके माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची या बडे भाई बहन ही होते है और इन्ही से वह किशोर अपने नये सृजित विचारो को बांटना चाहेगा। किशोर को जब कभी अपने विचारो को बांटने के लिए इन का समय नही मिल पाता या फिर इनमे से कोई भी उन विचारो मे इत्तफाक नही रखता तब ये किशोर अपने हमउम्र सखा/सखी (पीअर ग्रुप) मे अपनी जगह तलाश करता है और अपने अपरिपक्व विचारो पर एक और अपरिक्वता की मोहर लगाकर उन विचारो को लेकर आगे बढ जाता है। ऐसा नही है कि अपने संगी-साथियो के साथ विचारो का आदान प्रदान गलत है लेकिन इन विचारो मे यदि एक परिपक्व सलाह भी जुडी होती तो बेहतर दिशा या कहे कुछ दूसरी दिशा होती किशोर बच्चो को अपने संगी-साथियो के साथ घुले मिले लेकिन उनका अपने परिजन भी ऐसा वाताबरण बानाने की कोशिश करे कि बच्चे किशोरावस्था मे अपने विचारो का आदान प्रदान कर सके तो किशोर अपने विचारो को बेहतर दिशा देने मे सक्षम होंगे।