Thursday 26 June 2014


अंधकार और कवि
"जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि" बात बिल्कुल सोलह आन्ने सच है। जहाँ रवि नही पहुँचते वहाँ कौन पहुँचता है? वहाँ पहुँचता है अंधकार। अंधकार और कवि का चौली दामन का साथ है, इसलिए सारे कवि सम्मेलन रवि की अनुपस्तिथि में रात में होते हैं, जहाँ रवि हो वहाँ कवि पहुँचते ही नही हैं।  बाते भी सारी रात की ही करते हैं जैसे दिन से कोई दुश्मनी हो, सूरज में सारी दुनिया देखती है, कवियो को सब कुछ चाँद में ही नजर आता है। दुनिया को चँदा गोल नजर आता है कवियो को चकोर नजर आता है। रात के दो दो बजे तक कवि सम्मेलन करते हैं और कहते हैं कि इस रात की तनहाई में आवाज ना दो और श्रोताओ की आवाज बन्द हो जाय  तो फिर कहेंगे कि ताली बजाओ, अपनी उपस्तिथि दर्ज कराओ। कवि भी नाना प्रकार के होते है, हास्य रस कवि, वीर रस कवि, श्रगार रस कवि, आदि आदि।
हास्य रस के कवियो की हालत ऐसी होती है जैसे घर से इतने डरा के भेजे गये हो कि दुनिया हंस ले लेकिन कवि के चेहरे पर हंसी नही आनी चाहिए। कुल मिला के हंसी आनी चाहिए वो खुद को आए या दूसरो को, दूसरे की पर ही छाती ठोक लो क्या फर्क पड़ता है। हास्य के कवि का अन्दर का दर्द कोई नही समझता। कवि कितना भी चिल्लाले कि हमारे यहाँ शादी से पहले प्रेम का कोई चांस ही नही है, कोई ध्यान नही देता कि शादी से पहले प्रेम ना होने का कितना बडा दर्द है? वीर रस के कवियों की बडी अजीब स्तिथि है, उम्र कितनी भी हो जाय लेकिन आवाज इतनी कडक होती है कि देश के दो चार दुश्मन तो आवाज सुन कर ही भाग जाय। संसद से सवाल जबाब ऐसे होता है जैसे आधी संसद कवि सम्मेंलन सुनने के लिए श्रोताओ में ही बैठी हो। वीर रस के कवियो की कवि सम्मेलन में बडी महत्ता है, यदि श्रोताओ की ध्यानमग्नता की कमी से कवियों का ध्यानभंग हो रहा होता है, ऐसी विपरीत परिस्तिथियों में किसी वीर रस के कवि को बुला लिया जाता है, कुछ श्रोतागण घबराकर शान्त हो जाते हैं, बचे हुए उन्हे देखकर चुप्पी साधनें में अपनी भलाई समझते हैं। श्रंगार रस के कवि युवाओ के बहुत प्रिय होते हैं, यूनिवर्सिटीज आदि के कवि सम्मेंलन में इनकी बेहद मांग होती है। छात्रो को अपने कोर्स चाहे विषय सूची याद हो ना हो, लेकिन इन कवियो की कविता जबानी याद होती है
हर कोई अपनी अच्छी छवि बनाना चाहता है लेकिन इस मामले मे कवि पीछे रह जाते है, कवि की कोई छवि नही होती। ये किसी एक दो कवि की बात नही है, बल्कि किसी भी कवि की छवि नही होती। कवि की छवि हो भी नही सकती क्योकि छवि रवि के बिना नही बन सकती और कवि वहाँ पहुँचते है जहाँ रवि नही पहुँचते कवि को किसी छवि की जरुरत भी नही होती क्योकि इस सम्मेलन की जो खबर छपती है, उसमे छाया से पहले कवि के शब्दो पर नज़र जाती है।

Thursday 19 June 2014


लातो का वल्डकप नही बातो का बल्डकप होना चाहिए
द सी एक्सप्रेस मे प्रकाशित हो चुका है..
फीफा की फुटबाल मे जीवन्तता की कमी है, फीफा मे फुटबालर लातो से फुटबाल खेलता है लेकिन हमारे देश मे बतबोलर बातो से फुटबाल खेलता है। बातो के बतबोलर की फुटबाल मे कही अधिक जीवन्तता है, इसमे अच्छे अच्छो का लतिया के नही बतिया के डब्बा गोल कर दिया जाता हैलातो वाली फुटबाल तो बस शौकिया होती है, बतबोलर की बातो वाली फुटबाल ही असली फुटबाल है। बात से काम चल जाय तो फिर लात क्यो चलाना? बतबोलर को बात छोकने मे इतनी निपुणता हासिल है कि लात चलाने की जरुरत ही नही पडती, बातो से ही किसी को भी फुटबाल बना देते है। जिनको बातो से खेलना नही आता, वही लातो से फुटबाल खेलते है।

टिकट के लिए दावेदारो की  दौड मे दावेदार को इस से उस के पास दौडाया जाता है, फलाना गुट मे पैठ बनाये तो ढिमका गुट हाथ ने निकल जाता दिखायी जाता है, दावेदार इससे उससे फलाना से ढिमका से मिलते मिलते तिनका-तिनका हो जाता है।  दावेदार को बात बनती तो दिखती है लेकिन बनती नही, बनती है तो बस फुटबाल। कितना भी मन खिन्न हो लेकिन गोलपोस्ट तक पहुँचना है तो बात के बिना बात भी नही बनेगी। दावेदार बतबोल की बात खा खाकर जैसे-तैसे डी मे तो प्रवेश कर जाता है लेकिन यहाँ बतबोलो की धारदार बातो के सामने हिम्मत जबाब दे देती है और किस्मत से यही उम्मीद रहती है कि कही से कोई बात आये जो उसे गोलपोस्ट के अन्दर कर दे। अपनी और पार्टी की जीत हो जाय तो टिकट की दौड के बाद गोल्डन सूट की होड मे एक बार फिर फूं फां फुटबाल के लिए कमर कसनी पडती है।

एक बार फाइल बाबु तक पहुँच जाय, बस फिर फाइल जमा करने वाला फाइलर रात को सपने मे भी बाबुजी बाबुजी ही भजता है। जैसे ही फाइलर दफ्तर जाता है, फाइलर की नमस्कार का जबाब बाबु एक कुटिल स्माइल के साथ देता है और जबाब मे फाइलर फिनाइल का घूँट सा पीकर रह जाता है। फाइलर को बाबु का दफ्तर और अपना घर फुटबाल मैदान के दो गोल पोस्ट से नजर आते है । ऐसा नही है कि फाइल दौडती नही है लेकिन लाल बाबु इधर से और हरि बाबु उधर से बातो की लतेड देते है। फाइल और फाइलर की स्थिति लाल हरि बाबु के बीच और घर दफ्तर के बीच फुटबाल सी हो जाती है

बात और लात मे जिसमे जो माहिर वह वही फुटबाल खेलता है, बस मे फीफा वाली फुटबाल मे अंग्रेजी का गोल होता है और फूं फां बातो वाली बतबोलर की फुटबाल मे जिसकी फुटबाल बनती है वह खुद हिन्दी मे गोल हो जाता है। बतबोलर की फूं फां फुटबाल का भी एक बल्ड कप होना चाहिए, वही होगा हमारा अपना बल्ड कप, हम तो उसी मे खेलेंगे, ये फीफा का वल्ड कप हमारे काम का नही है। ।

Sunday 15 June 2014


जम्मु-काश्मीर विकास के लिए बाधा पार करनी होगी
अमर उजाला- काम्पैक्ट, आगरा मे प्रकाशित हो चुका है..
आज भी 1947 के बटवारे के समय जम्मु-काश्मीर आये हिन्दुओ को भारत की नागरिकता तो है लेकिन वे जम्मु-काश्मीर की नागरिकता से आज भी दूर है। लद्धाख से भाजपा के सांसद जितेन्द्र सिंह ने धारा-370 की व्यापक परिप्रेक्ष्य मे मुल्यांकन करने की जरुरत बतायी है जिसपर एक गम्भीर चिंतन की आवश्यकता है। जम्मु-काश्मीर के ये भारतीय नागरिक आज भी राशन कार्ड, नगरीय और विधान सभा  के चुनाव मे मताधिकार तक से आज भी वंचित है। भारतीय नागरिकता हिने के नाते संसदीय चुनावो मे जरूर ये अपने मताधिकार का प्रयोग करते है। इन लगभग ढाई लाख मतदाताओ मे अधिकतर दलित, बोद्ध और स्थानीय जनजातियो से है। धारा ३७० के संबंध मे उमर अबदुल्ला का हालिया वक्तव्य कि यदि धारा 370 से छेडछाड की जाती है तो जम्मू-काश्मीर भारत का हिस्सा नही रहेगा, बेहद गैर जिम्मेदाराना है और इसकी भर्त्सना की जानी चाहिए, ऐसे वक्तव्य देश की अखण्डता और सम्प्रभुता पर सीधा हमला है।

7 अक्टूबर 1947 मे महाराजा हरिसिंह के भारत अधिराज्य का विकल्प स्वीकार करने के बावजूद शेख अबदुल्ला ने भारतीय संविधान से जम्मु-काश्मीर को अलग रखने की कवायद जारी रक्खी। इसी समय मे मोहम्मद अली जिन्ना ने भोपाल और हैदराबाद के मिस्लिम शासको को भी पाकिस्तान अधिराज्य के विकल्प को स्वीकार करने का दबाव बनाया था। भारत स्वतंत्रता अधिनियम-1947 और भारत सरकार अधिनियम-1935 से स्पष्ठ था कि ब्रटिश इंडिया के अधिकार क्षेत्र से बाहर की भारतीय रियासतो को भारत या पाकिस्तान अधिराज्य मे शामिल होने का विकल्प दिया गया था। तत्कालीन भारत सरकार के रियासत मंत्रालय के प्रभारी मंत्री ने अधिमिलन पत्र तैयार किया, जिसमे लगभग सभी रियासतो के राजाओ ने संघ के इस प्रस्तावित अधिमिलन पत्र पर हश्ताक्षर करके भारत अधिराज्य मे शामिल होने का निर्णय 15 अगस्त 1947 से पहले ही कर लिया था, जम्मु-काश्मीर हैदराबाद और जूनागढ मे हैदराबाद और जूनागढ़ ने भी सरदार पटेल के प्रयासो से भारत अधिराज्य मे विलय का विकल्प स्वीकार कर लिया। उसी समय  कबीलाइयो के वेष मे पाकिस्तानी सेना ने जम्मु-काश्मीर पर हमला कर दिया। भारतीय सेना पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मु-काश्मीर मे आगे बढ रही थी लेकिन अचानक जनवरी को नेहरु ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी और मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ मे ले गये, आज तक जम्मु काश्मीर का वो हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे मे है। जम्मु-काश्मीर के भारत मे विलय के बाद नेहरु ने राज्य की कमान शेख अबदुल्ला को सौप दी, मौके का फायदा उठा शेख अबदुल्ला खुद को "सदरे रियासत" घोषित कर अपने हित साधने की तरफ आगे बढने लगे। इसी पृष्ठभूमि मे गोपालस्वामी आयंगर ने संघीय संविधान सभा मे धारा 306-ए का प्रारुप प्रस्तुत किया, जो बाद मे धारा-370 बनी, हालांकि गोपालस्वामी आयंगर  ने भी इसे तत्कालीन परिस्तिथि को देखते हुए एक अस्थायी व्यवस्था ही बताया था।

23 जून 1953 को सारा देश तब आश्चर्यचकित रह गया जब पता चला कि डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का अस्पताल मे ले जाते हुए निधन हो गया है, उन्होने नारा दिया था "दो विधान, दो प्रधान, दो निशान, नही चलेंगे नही चलेंगे"। पूरे देश मे विरोध प्रदर्शन करते हुए, जब डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मु-काश्मीर पहुँचे, तो उन्हे उनके साथियो सहित गिरफ्तार कर लिया गया । डा. मुखर्जी की रहस्मय शहादत के बाद पूरे जम्मु-काश्मीर मे हिंसक आंदोलन शुरु हो गये, जिसके बाद शेख अबदुल्ला की गिरफ्तारी भी हुई लेकिन बाद मे नेहरु और शेख अबदुल्ला के बीच समझौता हुआ और जम्मु-काश्मीर मे धारा-३७० लागु कर दी गयी। आज जम्मु-काश्मीर को देश की मुख्यधारा मे लाकर विकास की राह पर आगे लाने के लिए धारा-370 पर चर्चा जरुरी हो गयी है और यही  डाक्टर मुखर्जी  को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। डाक्टर मुखर्जी शहादत को भुलाया नही जा सकता।

Tuesday 10 June 2014


बोल गोलमोल, फिर सारे द्वार खोल
मम्मी की रोटी गोल है, पापा के पैसे गोल है, चंदा मामा गोल है, ये सब बचपन के राक एण्ड राल है। जैसे जैसे बचपन से जवानी आती है और जवानी मे रवानी छाती है, मम्मी की गोल रोटी मोटी हो जाती है, पिज्जा बरगर स्विस रोल का टेस्ट आफ सोल हो जाता है। पापा का पैसा ही नही, पापा का बडा बडा नोट भी जेब से गोल हो जाता है, चंदा मामा भी गोल नही रहता, ये भी महबूबा के शक्ल अख्तियार कर चकोर हो जाता है। इसका पता नही ये गोल-गोल कब किधर चल दे, इसकी स्थिति बडी डावाडोल है। इस गोल का कोई मोल नही, ये अनमोल है। भोलु के अनमोल होने मे इस गोल के मोल का झोल है, उसने गोलमोल के सुत्र को समझा है, गोलमोल उसके अनमोल होने का सुत्रधार है। सीधे रस्ते की उल्टी चाल हो या उल्टे रस्ते की सीधी चाल, कोई फर्क नही पडता क्योकि दुनिया गोल है और घूमना तो फिर भी गोल गोल है। गोल-गोल घुमने वाला अलग होता है, चालबाज तो चाल चलता है और जिस पर चलता है, वो गोल गोल चक्कर लगाते लगाते घमचक्कर बन जाता है।
इस गोल गोल ने बडो बडो का घमचक्कर बना दिया, भारत मे दौसो साल से जमे अंग्रेजो को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के गोल गोल घूमते चरखे ने ऐसा घुमाया कि उनकी चकरघिन्नी बन गयी और भाग खडे हुए। स्वाधीनता संग्राम मे अंग्रेजो के खिलाफ गोलबन्दी करने मे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के गोल-गोल घूमते चरखे का बडा रोल रहा था, चरखे ने स्वाधीनता की क्रान्ति मे धुरी का काम किया था। भगवान श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र भी गोलाकार ही था, भले ही सौ अपराधो के बाद सुदर्शन का प्रयोग हुआ हो लेकिन जब हुआ तो अपने मे एक अलग इतिहास बन गया। आज इंटरनैट मे अपलोडिंग हो या डाउनलोडिंग गोल-गोल घुमते चक्कर से हर कोई वाकिफ है। इंटरनैट के गोल गोल घूमते चक्कर ने आज पूरी दुनिया को गोलबन्द कर दिया है। चाहे वह राजनीति हो, खेल हो, रिसर्च हो या बच्चो के गेम्स हो, आज इंटरनैट के गोलचक्कर से कोई भी क्षेत्र अछुता नही है, इंटरनैट के गोलचक्कर ने हर किसी की पुतली गोल कर दी है। इंटरनैट के गोलचक्कर ने बडे बडे गोलमोल चालबाजो का डब्बा गोल कर दिया। हाल के समपन्न चुनावो मे भी बहुतो को रोल करने मे इंटरनैट के गोलचक्कर का अपना गजब का रोल रहा है।
गोलमोल की गोली थ्री नाट थ्री की गोली से भी ज्यादा काम करती है, जिस पर गोलमोल की गोली दागी जाती है, ये उसे मारती नही है बस मरनासन्न कर के छोड देती है। जब तक भोलु गोलमोल मे पारंगत नही होते तब तक टालमटोल का सुत्र अपनाया जाता है, इससे कम से कम छुटभैया गोलमोल कि पदवी तो मिल ही जाती है। परमसिद्धि प्राप्त गोलमोल भोलु को अन्त मे गोल-गोल  इमारत मे अपनी प्रतिभा को चरम पर मे जाने का मौका मिलता है ये गोलमोल की क्रिया अप्राकृअतिक नही है, हम जिस धरती पर रहते है वह भी गोल है, ये धरती अपने ही अक्ष पर भी घूमती रहती है, यही नही ये धरती सूर्य के चारो तरफ भी घूमती है, इसे तो प्राकृतिक घूमना ही कहेंगे? केवल धरती ही नही, सभी गृह गोल-गोल होते है और गोल-गोल घूमते है और उनके साथ हम भी गोल-गोल घूमते रहते है। जिसने इस दुनिया के गोलमोल के बोल को समझा उसके लिए दुनिया के सारे द्वार खुल जाते है। इस गोलमोल के चक्कर मे घूमना हमारी मजबूरी है, एक चमकता सूर्य हमारी धुरी है, इस चमकते सूर्य से हम कभी नजरे मिलाकर ये भी नही पूछ सकते कि उसने हमारी चकरघिन्नी क्य़ू बना रक्खी है ?